ध्यान कक्षा ४:३० सुबह
ध्यान एक प्रक्रिया नहीं बल्कि अवस्था है, इस बात को हमेशा से मन में बिठाए रखें। तो जब कभी कोई आपको ध्यान साधना सीखने या सिखाने की बात करता है तो बस इतना ही समझें कि कैसे ध्यान की अवस्था तक पहुंचा जाए वह रास्ता दिखाया जायेगा।
वह रास्ता भी बहुत महत्त्वपूर्ण है परन्तु उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है बताए गए रास्ते पर चलना। अगर आप सोचें सिर्फ ध्यान से सम्बन्धित बातें बहुत दिनों, महीनों और सालों तक भी सुनते रहें ध्यान की अवस्था तक पहुंच सकेंगे, ऐसा संभव नहीं हो सकेगा।
उसके लिए प्रयास और अभ्यास एक मात्र उपाय है।
यहां सुबह ब्रह्ममुहुर्त की ध्यान कक्षा में सांसों पर ध्यान का अभ्यास करते और करना सीखते हैं।
प्रक्रिया अगर समझ कर रखें तो सुबह के ध्यान साधना का अधिक लाभ उठा सकेंगे
१. यह कोई जादू नहीं है किसी भी चमत्कार की अपेक्षा नहीं रखना
२. ध्यान साधना के अभ्यास के समय मन में विचार आते जाते रहेंगे, इनसे अचानक से शून्य नहीं हो पाओगे। इसके प्रति कोई आशा या चिंता नहीं करना।
३. किसी भी तरह की उम्मीद या आशा लेकर नहीं बैठना की आज ध्यान की स्थिति हो ही जायेगी। यही आशा/निराशा, यही चाहत आपके लिए ध्यान में बाधा बनेगी।
४. ध्यान साधना की प्रक्रिया आपको रोचक शायद न भी लगे, क्योंकि यह अपने ही मन को नियंत्रित करने का तरीका है। इसलिए आपका मन विचलित होगा बार बार।
५. ध्यान का साधना की शुरुआत किसी भी प्रक्रिया से शुरू की जा सकती है। कोई गलत, कोई सही है इस तरह बातों में नहीं उलझना।
६. यहां सुबह शुरुआत में ध्यान के लिए, आपको सांसों के आवागमन और उसके साथ कुछ गिनती करने को कहा जा सकता है अथवा सिर्फ सांसों के आवागमन पर ध्यान रखने को कहा जाता है। उद्देश्य सिर्फ यही होता है आपकी एकाग्रता बढ़े
७. ध्यान की स्थिति एकाग्रता के बाद की ही स्थिति है।
कोई भी दुविधा या परेशानी होती है तो प्रश्न पूछ लिया करो, अनुमान लगाकर आगे नहीं बढ़ो। ऐसा करने से आपका बहुत सारा मूल्यवान समय नष्ट होता है।
ध्यान एक प्रक्रिया नहीं बल्कि अवस्था है, इस बात को हमेशा से मन में बिठाए रखें। तो जब कभी कोई आपको ध्यान साधना सीखने या सिखाने की बात करता है तो बस इतना ही समझें कि कैसे ध्यान की अवस्था तक पहुंचा जाए वह रास्ता दिखाया जायेगा।
वह रास्ता भी बहुत महत्त्वपूर्ण है परन्तु उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है बताए गए रास्ते पर चलना। अगर आप सोचें सिर्फ ध्यान से सम्बन्धित बातें बहुत दिनों, महीनों और सालों तक भी सुनते रहें ध्यान की अवस्था तक पहुंच सकेंगे, ऐसा संभव नहीं हो सकेगा।
उसके लिए प्रयास और अभ्यास एक मात्र उपाय है।
यहां सुबह ब्रह्ममुहुर्त की ध्यान कक्षा में सांसों पर ध्यान का अभ्यास करते और करना सीखते हैं।
प्रक्रिया अगर समझ कर रखें तो सुबह के ध्यान साधना का अधिक लाभ उठा सकेंगे
१. यह कोई जादू नहीं है किसी भी चमत्कार की अपेक्षा नहीं रखना
२. ध्यान साधना के अभ्यास के समय मन में विचार आते जाते रहेंगे, इनसे अचानक से शून्य नहीं हो पाओगे। इसके प्रति कोई आशा या चिंता नहीं करना।
३. किसी भी तरह की उम्मीद या आशा लेकर नहीं बैठना की आज ध्यान की स्थिति हो ही जायेगी। यही आशा/निराशा, यही चाहत आपके लिए ध्यान में बाधा बनेगी।
४. ध्यान साधना की प्रक्रिया आपको रोचक शायद न भी लगे, क्योंकि यह अपने ही मन को नियंत्रित करने का तरीका है। इसलिए आपका मन विचलित होगा बार बार।
५. ध्यान का साधना की शुरुआत किसी भी प्रक्रिया से शुरू की जा सकती है। कोई गलत, कोई सही है इस तरह बातों में नहीं उलझना।
६. यहां सुबह शुरुआत में ध्यान के लिए, आपको सांसों के आवागमन और उसके साथ कुछ गिनती करने को कहा जा सकता है अथवा सिर्फ सांसों के आवागमन पर ध्यान रखने को कहा जाता है। उद्देश्य सिर्फ यही होता है आपकी एकाग्रता बढ़े
७. ध्यान की स्थिति एकाग्रता के बाद की ही स्थिति है।
कोई भी दुविधा या परेशानी होती है तो प्रश्न पूछ लिया करो, अनुमान लगाकर आगे नहीं बढ़ो। ऐसा करने से आपका बहुत सारा मूल्यवान समय नष्ट होता है।
गुरुजी एक बात पूछनी थी मुझे,,
Q. जैसे दुनिया में जितने भी महान लोग हुए है, जिन्होंने दौलत और शोहरत दोनो ही कमाए हो, जैसे लता मंगेशकर जी हैं, सचिन तेंदुलकर हैं,, जिन्होंने भारत रत्न को प्राप्त किया हो,, क्या उनको भी अपने फिर से नए जन्म में आत्मा की यात्रा करने पड़ेगी,, मेरा मतलब ध्यान की यात्रा में ही लगना पड़ेगा फिर से इस संसार में
तभी उनकी मुक्ति हो पाएगी??
~
दौलत और शोहरत कभी भी इस जीवन चक्र से मुक्ति नहीं दिलाती है। क्योंकि न उसे पैसे से खरीदा जा सकता है न ही प्रतिष्ठा से पाया जा सकता है।
बल्कि ठीक इसके उल्टे, पैसे और प्रतिष्ठा के मोह में इन्सान इस बंधन में और ज्यादा बंधा रहता है।
राजकुमार सिद्धार्थ के पास पद, प्रतिष्ठा, धन आदि सब कुछ था लेकिन शान्ति और मोक्ष की तलाश में सब त्याग करना ही पड़ा। सब त्याग के बाद जो बचा वही गहरी शान्ति हुई, वहीं से मुक्ति का मार्ग निकला। तभी वो बुद्ध कहलाए।
सिद्धार्थ गौतम से गौतम बुद्ध हो गए।
अगर आपके पास भी कोई प्रश्न जो आपको परेशान करती हो अथवा ध्यान व योग से सम्बन्धित कोई प्रश्न हो तो प्रश्न अवश्य पूछें।
एक छोटा सा मार्गदर्शन आपकी पूरी जीवन यात्रा को साकारात्मक दिशा दे सकता है।
Telegram / Instagram - @dhyankakshaorg
Q. जैसे दुनिया में जितने भी महान लोग हुए है, जिन्होंने दौलत और शोहरत दोनो ही कमाए हो, जैसे लता मंगेशकर जी हैं, सचिन तेंदुलकर हैं,, जिन्होंने भारत रत्न को प्राप्त किया हो,, क्या उनको भी अपने फिर से नए जन्म में आत्मा की यात्रा करने पड़ेगी,, मेरा मतलब ध्यान की यात्रा में ही लगना पड़ेगा फिर से इस संसार में
तभी उनकी मुक्ति हो पाएगी??
दौलत और शोहरत कभी भी इस जीवन चक्र से मुक्ति नहीं दिलाती है। क्योंकि न उसे पैसे से खरीदा जा सकता है न ही प्रतिष्ठा से पाया जा सकता है।
बल्कि ठीक इसके उल्टे, पैसे और प्रतिष्ठा के मोह में इन्सान इस बंधन में और ज्यादा बंधा रहता है।
राजकुमार सिद्धार्थ के पास पद, प्रतिष्ठा, धन आदि सब कुछ था लेकिन शान्ति और मोक्ष की तलाश में सब त्याग करना ही पड़ा। सब त्याग के बाद जो बचा वही गहरी शान्ति हुई, वहीं से मुक्ति का मार्ग निकला। तभी वो बुद्ध कहलाए।
सिद्धार्थ गौतम से गौतम बुद्ध हो गए।
अगर आपके पास भी कोई प्रश्न जो आपको परेशान करती हो अथवा ध्यान व योग से सम्बन्धित कोई प्रश्न हो तो प्रश्न अवश्य पूछें।
एक छोटा सा मार्गदर्शन आपकी पूरी जीवन यात्रा को साकारात्मक दिशा दे सकता है।
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गुरु जी....अगर किसीके साथ कुछ गलत होता है ,
जैसे किसके साथ दुर्व्यवहार या कोई गलत आरोप या उसकी जिंदगी के साथ कोई गलत फैसला या फिर उसके साथ भेदभाव , या समाज में बदनामी करना, उसके साथ मारपीट करना गालियां देना..!
तो उस व्यक्ति के कई प्रयत्न करने के बाद भी कुछ ठीक न होना, तब उसको अपने पूर्व जन्म के कर्म का फल समझते हुए उस अन्याय को सहना चाहिए या उसको आवाज उठानी चाहिए अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ और सजा दिलानी चाहिए...?
क्योंकि अगर हमसे पिछले जन्म में कुछ गलत हुआ हो तो वो फल तो हम हर हाल में भुगतना ही पड़ेगा ना...?
उत्तर -
इसको एक कहानी की तरह समझते हैं ...
एक बार चिमनीलाल और उसका दोस्त नटवर 100- 100 बीज का रोपण करते हैं। जान के कहो या अनजाने में चिमनी ने आम के बीज बोए और नटवर ने बबूल के।
समय गुजरा दोनों बीज पेड़ बन गए, अब आमतौर पर देख के तो ऐसा ही प्रतीत होता है की चिमनी की जिन्दगी खुशहाल हो गई लाभ ही लाभ।
लेकिन हुआ क्या यह देखो, आम के सारे वृक्ष पर अभी फल आए नहीं थे। कुछ एक पेड़ फलते भी तो वह भी साल में 3 महीने वह भी बच्चे खा जाते घर में ही। इधर नटवर, कभी ईंधन के लिए तो कभी फर्नीचर के लिए लकड़ी सालों भर कुछ न कुछ बेचता रहता।
नटवर को देख चिमनी ने भी आम को काट के लकड़ी बेच डाला सालों भर। अगले साल बबूल फिर हरे भरे हो गए लेकिन आम का बाग उजड़ चुका था।
इस साधारण सी कहानी की तरह ही है सब कुछ,
दुःख और सुख तो हमारे वर्तमान वाले कामों से बनते हैं।
जो बोया है जाने अनजाने में वह तो आयेगा, लेकिन हम उस आने वाली स्थिति के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कैसे संतुलन रखते हैं वही सुख और दुख को निर्धारित करता है।
कहानी में नटवर की बीज लगाने की भूल के कारण, कांटों वाला पेड़ आ गया। लेकिन उसने संयम से उस बुरी स्थिति को अपने पक्ष में कर लिया।
इसलिए बस संयम से देखो, स्थिति चाहे कितनी भी बुरी क्यों न हो उससे बाहर निकलने और उसको अपने लिए अच्छा बनाने का सूत्र जरूर होगा।
बस मानसिक शांति और संयम ही तय करेगा तुम्हारा वर्तमान कैसा रहेगा। क्योंकि इतिहास में जी नहीं सकते और भविष्य तभी जी सकते हैं जब वह वर्तमान बन आयेगा तुम्हारे सामने।
जैसे किसके साथ दुर्व्यवहार या कोई गलत आरोप या उसकी जिंदगी के साथ कोई गलत फैसला या फिर उसके साथ भेदभाव , या समाज में बदनामी करना, उसके साथ मारपीट करना गालियां देना..!
तो उस व्यक्ति के कई प्रयत्न करने के बाद भी कुछ ठीक न होना, तब उसको अपने पूर्व जन्म के कर्म का फल समझते हुए उस अन्याय को सहना चाहिए या उसको आवाज उठानी चाहिए अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ और सजा दिलानी चाहिए...?
क्योंकि अगर हमसे पिछले जन्म में कुछ गलत हुआ हो तो वो फल तो हम हर हाल में भुगतना ही पड़ेगा ना...?
उत्तर -
इसको एक कहानी की तरह समझते हैं ...
एक बार चिमनीलाल और उसका दोस्त नटवर 100- 100 बीज का रोपण करते हैं। जान के कहो या अनजाने में चिमनी ने आम के बीज बोए और नटवर ने बबूल के।
समय गुजरा दोनों बीज पेड़ बन गए, अब आमतौर पर देख के तो ऐसा ही प्रतीत होता है की चिमनी की जिन्दगी खुशहाल हो गई लाभ ही लाभ।
लेकिन हुआ क्या यह देखो, आम के सारे वृक्ष पर अभी फल आए नहीं थे। कुछ एक पेड़ फलते भी तो वह भी साल में 3 महीने वह भी बच्चे खा जाते घर में ही। इधर नटवर, कभी ईंधन के लिए तो कभी फर्नीचर के लिए लकड़ी सालों भर कुछ न कुछ बेचता रहता।
नटवर को देख चिमनी ने भी आम को काट के लकड़ी बेच डाला सालों भर। अगले साल बबूल फिर हरे भरे हो गए लेकिन आम का बाग उजड़ चुका था।
इस साधारण सी कहानी की तरह ही है सब कुछ,
दुःख और सुख तो हमारे वर्तमान वाले कामों से बनते हैं।
जो बोया है जाने अनजाने में वह तो आयेगा, लेकिन हम उस आने वाली स्थिति के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कैसे संतुलन रखते हैं वही सुख और दुख को निर्धारित करता है।
कहानी में नटवर की बीज लगाने की भूल के कारण, कांटों वाला पेड़ आ गया। लेकिन उसने संयम से उस बुरी स्थिति को अपने पक्ष में कर लिया।
इसलिए बस संयम से देखो, स्थिति चाहे कितनी भी बुरी क्यों न हो उससे बाहर निकलने और उसको अपने लिए अच्छा बनाने का सूत्र जरूर होगा।
बस मानसिक शांति और संयम ही तय करेगा तुम्हारा वर्तमान कैसा रहेगा। क्योंकि इतिहास में जी नहीं सकते और भविष्य तभी जी सकते हैं जब वह वर्तमान बन आयेगा तुम्हारे सामने।
प्रश्न -
क्या मुक्ति की कामना होना भी एक कामना नहीं है ?
अगर कोई राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे बड़े पदभार छोड़ कर हिमालय पे जाने की इच्छा रखे तो क्या सही रास्ता है ?
-
सिद्धार्थ गौतम को जब ज्ञान की प्राप्ति हुई, बुद्ध हो गये तो अपने वादा के अनुसार अपनी पत्नी यशोधरा के पास लौटकर आये।
तब यशोधरा ने पूछा - आपने जो कुछ पाया, आप तथागत हुए, बुद्ध हुए - क्या यह सब कुछ यहाँ नहीं मिल सकता था?
बुद्ध ने कहा - मिल तो यहाँ भी सकता था, लेकिन यहाँ भी मिल सकता है जानने के लिए मुझे जाना पड़ा, जिसके बिना यह जान पाना संभव नहीं था।
अब यहीं से अपने उत्तर को समझो, अगर मैं कह दूँ कि कोई अपने बड़े उत्तरदायित्व को छोड़कर चला जाये, यह उचित है; तो तुम्हारा प्रश्न यह होगा फिर राष्ट्र का क्या होगा?, समाज का क्या होगा? फिर तुम्हारे मन में बुद्ध के घर छोड़ जाने पर भी प्रश्न होने लगेगा।
पहली बात, दुनियाँ में किसी के कहीं जाने और रुक जाने से दुनियाँ नहीं चलती, समाज, देश, राष्ट्र आदि बनाई गई संस्था मानव निर्मित है जो हर १०-२० साल में बदलती ही रहती है। यह बहुत बड़े ब्रह्मांड में होने वाली एक छोटी सी घटना है। लेकिन कोई बुद्ध हो जाता है तो यह एक बड़ी घटना है।
समाज, कर्तव्य आदि को छोड़कर जाये बिना भी उस स्थिति तक पहुँचा जा सकता है और कौन कहाँ जा सकेगा, कहाँ जायेगा क, या होगा? यह सब बहुत कुछ प्रकृति या कहो ईश्वर तय करता है या कहो तुम्हारे हमारे पिछले कर्मों पर भी निर्भर करता है। पिछले कहने का मतलब सिर्फ़ पिछले जन्म ही नहीं, पिछले दिन, वर्ष, दशक, शतक हर कार्य का असर दिखता है।
इसलिए बुद्ध बनने की चेष्टा सबकी होती है लेकिन उस तरह की यात्रा पर कम ही लोग करते हैं और जब प्रारब्ध से यात्रा करते हैं तो प्रकृति सारी व्यवस्था कर देती है।
अब प्रश्न है, मुक्ति की कामना भी क्या कामना है?
हर एक कामना को बंधन जानो और मुक्ति की कामना भी एक बंधन ही है। जैसे एक जानवर को रस्सी में बाँधो, लोहे की ज़ंजीर में या सोने की ज़ंजीर में बंधन ही रहेगा। मुक्ति का अर्थ है हर विषय वस्तु के बंधन से मुक्त। लेकिन शुरुआत में मुक्ति की कामना मुक्ति की ओर जाने में मदद करती है।
उदाहरण के लिए मान लो तुम्हें नदी के दूसरे किनारे पर जाना है,
सबसे पहले इस किनारे को छोड़ना होगा
फिर एक नाव की ज़रूरत होगी
फिर दूसरे किनारे नाव पहुँचने पर नाव को भी छोड़ना ही पड़ेगा।
नहीं तो नाव के बंधन में बंधे रहोगे।
यही नाव मुक्ति की कामना है
क्या मुक्ति की कामना होना भी एक कामना नहीं है ?
अगर कोई राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे बड़े पदभार छोड़ कर हिमालय पे जाने की इच्छा रखे तो क्या सही रास्ता है ?
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सिद्धार्थ गौतम को जब ज्ञान की प्राप्ति हुई, बुद्ध हो गये तो अपने वादा के अनुसार अपनी पत्नी यशोधरा के पास लौटकर आये।
तब यशोधरा ने पूछा - आपने जो कुछ पाया, आप तथागत हुए, बुद्ध हुए - क्या यह सब कुछ यहाँ नहीं मिल सकता था?
बुद्ध ने कहा - मिल तो यहाँ भी सकता था, लेकिन यहाँ भी मिल सकता है जानने के लिए मुझे जाना पड़ा, जिसके बिना यह जान पाना संभव नहीं था।
अब यहीं से अपने उत्तर को समझो, अगर मैं कह दूँ कि कोई अपने बड़े उत्तरदायित्व को छोड़कर चला जाये, यह उचित है; तो तुम्हारा प्रश्न यह होगा फिर राष्ट्र का क्या होगा?, समाज का क्या होगा? फिर तुम्हारे मन में बुद्ध के घर छोड़ जाने पर भी प्रश्न होने लगेगा।
पहली बात, दुनियाँ में किसी के कहीं जाने और रुक जाने से दुनियाँ नहीं चलती, समाज, देश, राष्ट्र आदि बनाई गई संस्था मानव निर्मित है जो हर १०-२० साल में बदलती ही रहती है। यह बहुत बड़े ब्रह्मांड में होने वाली एक छोटी सी घटना है। लेकिन कोई बुद्ध हो जाता है तो यह एक बड़ी घटना है।
समाज, कर्तव्य आदि को छोड़कर जाये बिना भी उस स्थिति तक पहुँचा जा सकता है और कौन कहाँ जा सकेगा, कहाँ जायेगा क, या होगा? यह सब बहुत कुछ प्रकृति या कहो ईश्वर तय करता है या कहो तुम्हारे हमारे पिछले कर्मों पर भी निर्भर करता है। पिछले कहने का मतलब सिर्फ़ पिछले जन्म ही नहीं, पिछले दिन, वर्ष, दशक, शतक हर कार्य का असर दिखता है।
इसलिए बुद्ध बनने की चेष्टा सबकी होती है लेकिन उस तरह की यात्रा पर कम ही लोग करते हैं और जब प्रारब्ध से यात्रा करते हैं तो प्रकृति सारी व्यवस्था कर देती है।
अब प्रश्न है, मुक्ति की कामना भी क्या कामना है?
हर एक कामना को बंधन जानो और मुक्ति की कामना भी एक बंधन ही है। जैसे एक जानवर को रस्सी में बाँधो, लोहे की ज़ंजीर में या सोने की ज़ंजीर में बंधन ही रहेगा। मुक्ति का अर्थ है हर विषय वस्तु के बंधन से मुक्त। लेकिन शुरुआत में मुक्ति की कामना मुक्ति की ओर जाने में मदद करती है।
उदाहरण के लिए मान लो तुम्हें नदी के दूसरे किनारे पर जाना है,
सबसे पहले इस किनारे को छोड़ना होगा
फिर एक नाव की ज़रूरत होगी
फिर दूसरे किनारे नाव पहुँचने पर नाव को भी छोड़ना ही पड़ेगा।
नहीं तो नाव के बंधन में बंधे रहोगे।
यही नाव मुक्ति की कामना है
प्रश्न - मरने के बाद हमारे कर्मों का हिसाब किससे होता है, आत्मा से ?
---
तुमसे, तुम्हारे सूक्ष्म शरीर से और तुम स्वयं ही हिसाब करते भी हो और रखते भी हो, आत्मा हर हिसाब-किताब से मुक्त होता है, आत्मा परमात्मा का ही अभिन्न अंग है।
इसको समझो,
शरीर के पांच स्तर हैं, अन्नमय, प्राणमय, मानोमय, विज्ञानमय, आनंदमय।
शुरू के दो स्थूल हैं बाकी के तीन सुक्ष्म है।
इसी सुक्ष्म स्तर पर तुम्हारा चित तुम्हारे कर्मों का हिसाब किताब लगाता है और तुम्हारे कर्मों के अनुसार तुम्हें नए जन्म के लिए अग्रसारित है। यह सारी स्थिति स्थूल शरीर पर दिखाई देती नहीं है गुप्त होती है। इसलिए सुनते हो, तुम्हारे कर्मों का हिसाब चित्रगुप्त भगवान के पास होता है। शब्द चितगुप्त रहा होगा, जो कालांतर में चित्रगुप्त हो गया हो।
तुम्हारे कर्मों की सारी गठरी ढो कर चलना मानोमय और विज्ञानमय कोश या स्तर का काम है। तो मरने के बाद कर्मों के आधार पर इंसान को जो अगला जन्म मिलता है उससे आत्मा पर प्रभाव नहीं होता है और स्थूल शरीर मिट ही जाते हैं।
कहीं कहीं इसे आत्मा से हिसाब किताब होता समझ लेते हैं। जब इसे आत्मा के स्तर पर अलग करोगे तो फिर परमात्मा एक अलग स्थिति बन जाती है। क्योंकि जब आत्मा दूषित हो गई तो एक और स्थिति होगी जो दोष से प्रभावित ना होता हो।
गलत यह भी नहीं है बस एक ही स्थिति को दो अलग-अलग नाम दे दिया जाता है।
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तुमसे, तुम्हारे सूक्ष्म शरीर से और तुम स्वयं ही हिसाब करते भी हो और रखते भी हो, आत्मा हर हिसाब-किताब से मुक्त होता है, आत्मा परमात्मा का ही अभिन्न अंग है।
इसको समझो,
शरीर के पांच स्तर हैं, अन्नमय, प्राणमय, मानोमय, विज्ञानमय, आनंदमय।
शुरू के दो स्थूल हैं बाकी के तीन सुक्ष्म है।
इसी सुक्ष्म स्तर पर तुम्हारा चित तुम्हारे कर्मों का हिसाब किताब लगाता है और तुम्हारे कर्मों के अनुसार तुम्हें नए जन्म के लिए अग्रसारित है। यह सारी स्थिति स्थूल शरीर पर दिखाई देती नहीं है गुप्त होती है। इसलिए सुनते हो, तुम्हारे कर्मों का हिसाब चित्रगुप्त भगवान के पास होता है। शब्द चितगुप्त रहा होगा, जो कालांतर में चित्रगुप्त हो गया हो।
तुम्हारे कर्मों की सारी गठरी ढो कर चलना मानोमय और विज्ञानमय कोश या स्तर का काम है। तो मरने के बाद कर्मों के आधार पर इंसान को जो अगला जन्म मिलता है उससे आत्मा पर प्रभाव नहीं होता है और स्थूल शरीर मिट ही जाते हैं।
कहीं कहीं इसे आत्मा से हिसाब किताब होता समझ लेते हैं। जब इसे आत्मा के स्तर पर अलग करोगे तो फिर परमात्मा एक अलग स्थिति बन जाती है। क्योंकि जब आत्मा दूषित हो गई तो एक और स्थिति होगी जो दोष से प्रभावित ना होता हो।
गलत यह भी नहीं है बस एक ही स्थिति को दो अलग-अलग नाम दे दिया जाता है।
अगले जन्म में आत्मा वही रहती है या बदल जाती है और कर्मों का हिसाब हमारे मरने के बाद या पहले? अगर सब कुछ कर्मों का फल है फिर तो कुछ ग़लत सही नहीं होता है।
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इसको इस तरह से समझो,
एक सुनार के पास एक सोने की ईंट है, उसमें से उसने कुछ सोना निकाला और एक कंगन बनाया, कुछ सोने से गले की हार बनाया, कुछ सोने से अंगूठी बनाई।
अब तीनों गहने अलग अलग इन्सान को बेच दिए गए, फिर क्या हुआ होगा। तीनों गहनों की अलग अलग यात्रा शुरू हुई होगी। हो सकता है गले की हार को बाद में अलग आभूषण में बदले गए हों। किसी और को बेचा गया हो।
बार बार अलग आकार मिला होगा, नए मालिक मिले होंगे। कोई आभूषण किसी के पास ज्यादा दिन रहे होंगे कोई जल्दी-जल्दी बदले गए होंगे। अंगूठी हाथ में होने के कारण जल्दी घिस जाती होगी तो अपेक्षाकृत जल्दी आकार और मलिक बदल जाते होंगे, हार कभी-कभी पहना जाता होगा तो लंबे समय तक एक ही आकार में रहता होगा। है न ?
तो समझने वाली बात यह है क्या सोना बदल रहा है ? क्या सोने के गुण में कोई परिवर्तन आ रहा है ? नहीं सिर्फ आकार बदल रहा है, मालिक अर्थात स्थिति बदल रही है।
अब यहाँ गौर से देखो, सारा सोना एक ही है। जो सोनार के ईंट में बचा हुआ है या आभूषणों में घूम रहा है बाज़ार में। इन्हें कहने की सुविधा के लिए - बड़ा सोना और छोटा सोना नाम भर दिया जा सकता है।
उसी तरह परमात्मा से एक अंश निकला और किसी आकार में स्थापित हुआ और फिर उसकी यात्रा शुरू हो गई। जो अंश बाहर निकला और बार-बार बदलता हुआ संसार में घूम रहा है उसे आत्मा कह लिया सुविधा के लिए और जहां से निकला उसे परमात्मा।
तो तुम समझ रहे होगे, आत्मा बदलती नहीं है बस उसको नये नये आकार के आवरण में जाना पड़ता है।
और कर्मों का हिसाब हर वक़्त होते रहता है कुछ हिसाब बहुत छोटे होते हैं तो हमें पता नहीं चलता है। मृत्यु के बाद बड़ा परिवर्तन होता है वहाँ स्थूल शरीर भी टूट जाते हैं, बदल जाते हैं इसलिए वह परिवर्तन स्पष्ट दिखता है।
तुमने सुना होगा लोगों को कहते हुए -
"कर्म के फल इसी जन्म में मिल जाते हैं देखो फलाने ने ऐसा अन्याय किया तो उसके साथ अनुचित हुआ" और "कभी यह भी सुना होगा अच्छा इंसान है, इसके साथ कितना बुरा हुआ, किसी दूसरे जन्म का कर्म फल है"।
जैसे किसी को महीने के आख़िरी में सेलरी मिले या किसी का १० रुपया खो जाए तो यह भी कर्मफल ही तो है। ५ लाख की लॉटरी लग जाना या घर में आग लग जाना ही कर्मफल नहीं है सिर्फ़।
और ग़लत सही तो स्थिति, स्थान और समय के हिसाब से तय करते हैं।
जिसका प्रभाव व्यक्ति, समाज, वातावरण आदि के लिए ज़रूरी हो उसे सही और इसके विपरीत ग़लत कह सकते हो। लेकिन यह सब बदलते रहता है।
उदाहरण के लिए - जंगल काटना, वहाँ घर बनाना, पेड़ों का प्रयोग ईंधन के रूप में करना आज से कुछ साल पहले तक सब सही था। अभी के समय में ग़लत है। इस सृष्टि को इससे क्या लेना देना।
जरा सोचो तो इस पृथ्वी का आकार इस ब्रह्मांड के सामने।
एक और उदाहरण से समझो इसको
तुम्हारे पड़ोस के एक बच्चे की पेंसिल खो गई -
बच्चा परेशान हो सकता है अब डाँट पड़ेगी
या खुश अब नयी पेंसिल मिलेगी
उसके माँ बाप भी दुःखी हो सकते हैं एक अंश, बच्चा लापरवाह है या फिर कोई बात नहीं बच्चा ही तो है।
क्या तुम भी प्रभावित हो, तुम्हें तो शायद पता भी ना चले,
बताएगा कौन? इतनी छोटी सी बात
हाँ, पड़ोसी की कार खो जाए तो संभव है तुम्हें बताये और तुम अपनी सुविधा के अनुसार दुखी या सूखी हो सकते हो।
तो सारा ग़लत सही होना, दुखी या सुखी होना मन का खेल है।
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इसको इस तरह से समझो,
एक सुनार के पास एक सोने की ईंट है, उसमें से उसने कुछ सोना निकाला और एक कंगन बनाया, कुछ सोने से गले की हार बनाया, कुछ सोने से अंगूठी बनाई।
अब तीनों गहने अलग अलग इन्सान को बेच दिए गए, फिर क्या हुआ होगा। तीनों गहनों की अलग अलग यात्रा शुरू हुई होगी। हो सकता है गले की हार को बाद में अलग आभूषण में बदले गए हों। किसी और को बेचा गया हो।
बार बार अलग आकार मिला होगा, नए मालिक मिले होंगे। कोई आभूषण किसी के पास ज्यादा दिन रहे होंगे कोई जल्दी-जल्दी बदले गए होंगे। अंगूठी हाथ में होने के कारण जल्दी घिस जाती होगी तो अपेक्षाकृत जल्दी आकार और मलिक बदल जाते होंगे, हार कभी-कभी पहना जाता होगा तो लंबे समय तक एक ही आकार में रहता होगा। है न ?
तो समझने वाली बात यह है क्या सोना बदल रहा है ? क्या सोने के गुण में कोई परिवर्तन आ रहा है ? नहीं सिर्फ आकार बदल रहा है, मालिक अर्थात स्थिति बदल रही है।
अब यहाँ गौर से देखो, सारा सोना एक ही है। जो सोनार के ईंट में बचा हुआ है या आभूषणों में घूम रहा है बाज़ार में। इन्हें कहने की सुविधा के लिए - बड़ा सोना और छोटा सोना नाम भर दिया जा सकता है।
उसी तरह परमात्मा से एक अंश निकला और किसी आकार में स्थापित हुआ और फिर उसकी यात्रा शुरू हो गई। जो अंश बाहर निकला और बार-बार बदलता हुआ संसार में घूम रहा है उसे आत्मा कह लिया सुविधा के लिए और जहां से निकला उसे परमात्मा।
तो तुम समझ रहे होगे, आत्मा बदलती नहीं है बस उसको नये नये आकार के आवरण में जाना पड़ता है।
और कर्मों का हिसाब हर वक़्त होते रहता है कुछ हिसाब बहुत छोटे होते हैं तो हमें पता नहीं चलता है। मृत्यु के बाद बड़ा परिवर्तन होता है वहाँ स्थूल शरीर भी टूट जाते हैं, बदल जाते हैं इसलिए वह परिवर्तन स्पष्ट दिखता है।
तुमने सुना होगा लोगों को कहते हुए -
"कर्म के फल इसी जन्म में मिल जाते हैं देखो फलाने ने ऐसा अन्याय किया तो उसके साथ अनुचित हुआ" और "कभी यह भी सुना होगा अच्छा इंसान है, इसके साथ कितना बुरा हुआ, किसी दूसरे जन्म का कर्म फल है"।
जैसे किसी को महीने के आख़िरी में सेलरी मिले या किसी का १० रुपया खो जाए तो यह भी कर्मफल ही तो है। ५ लाख की लॉटरी लग जाना या घर में आग लग जाना ही कर्मफल नहीं है सिर्फ़।
और ग़लत सही तो स्थिति, स्थान और समय के हिसाब से तय करते हैं।
जिसका प्रभाव व्यक्ति, समाज, वातावरण आदि के लिए ज़रूरी हो उसे सही और इसके विपरीत ग़लत कह सकते हो। लेकिन यह सब बदलते रहता है।
उदाहरण के लिए - जंगल काटना, वहाँ घर बनाना, पेड़ों का प्रयोग ईंधन के रूप में करना आज से कुछ साल पहले तक सब सही था। अभी के समय में ग़लत है। इस सृष्टि को इससे क्या लेना देना।
जरा सोचो तो इस पृथ्वी का आकार इस ब्रह्मांड के सामने।
एक और उदाहरण से समझो इसको
तुम्हारे पड़ोस के एक बच्चे की पेंसिल खो गई -
बच्चा परेशान हो सकता है अब डाँट पड़ेगी
या खुश अब नयी पेंसिल मिलेगी
उसके माँ बाप भी दुःखी हो सकते हैं एक अंश, बच्चा लापरवाह है या फिर कोई बात नहीं बच्चा ही तो है।
क्या तुम भी प्रभावित हो, तुम्हें तो शायद पता भी ना चले,
बताएगा कौन? इतनी छोटी सी बात
हाँ, पड़ोसी की कार खो जाए तो संभव है तुम्हें बताये और तुम अपनी सुविधा के अनुसार दुखी या सूखी हो सकते हो।
तो सारा ग़लत सही होना, दुखी या सुखी होना मन का खेल है।
गुरुजी, मेरे खयाल से आत्मा कुछ है ही नहीं जो जन्मती है या मरती है । केवल कामनाओं का जन्म मरण होता है । कामनाएं जो की अति सूक्ष्म conciousness होती है , वही किसी माध्यम से सूक्ष्म शरीर नमक यंत्र से अटैच होती है और उस पर सवार होकर जन्मों की यात्राएं करती है । इन सभी को ऊर्जा देने वाली सत्ता ईश्वर है , जो की कामनाओं, सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर सभी को ऊर्जा प्रदान कर रही है ।
आज अगर 100 कामनाएं है तो वो हो सकता है 5 अलग अलग शरीर धारण कर ले । उन 5 शरीरों द्वारा उन 100 कामनाओं की पूर्ति के उद्देश्य से एक साथ 5 जन्म होंगे।
ऐसा मेरा सोचना है
--
एक ही बात को कहने के अलग अलग तरीके हैं। इसलिए तो भारत में अलग अलग दर्शन हुए... कुछ ने आत्मा को स्थान दिया, कुछ ने नहीं दिया।
तुम्हारी बातें भी कुछ स्तर पर ठीक हैं -
लेकिन हमें यहां समझना होगा, क्या हम ऐसा सोच लेने से या सुन लेने से या मान लेने से किसी लाभ को प्राप्त करते हैं तो उत्तर होगा नहीं।
दिक़्क़त यह होती है उसे शब्दों में कहने की कोशिश की जाती है जो शब्दों में पूरी तरह कभी समझा ही नहीं जा सकेगा। लेकिन हर सदी में एक गुरु अपनी तरफ़ से प्रयास करता ही रहा है उसे कुछ आसान शब्दों में कह दिया जाये; गुरु जानता है कोई कभी शब्दों में समझ नहीं पायेगा लेकिन हाँ यात्रा कि शुरुआत के लिए ये शब्द बड़े ज़रूरी होते हैं। इसलिए जब प्रश्नकर्ता बदल जाते हैं तो गुरुओं के उत्तर बदल जाते हैं।
कहते हैं, एक बार बुद्ध किसी गाँव में विहार कर रहे थे तो उनसे किसी ने पूछा -
भगवान मेरा मानना है ईश्वर नहीं होते हैं यह बस लोगों में स्थिरता और शान्ति बनाये रखने के लिए मान लिये गये हैं। आपका इस बारे में क्या कहना है।
बुद्ध ने तत्काल उत्तर दिया - तुम सही सोचते हो।
उसी शाम किसी दूसरे व्यक्ति ने पूछा - भगवान, मेरी बड़ी आस्था है ईश्वर में मुझे उनकी पूजा अर्चना करके गहरी शान्ति मिलती है। आपका इस बारे में क्या मत है? क्या ईश्वर हैं, क्या उनकी पूजा करना ठीक है?
बुद्ध ने तत्काल उत्तर दिया - तुम सही हो, ईश्वर की पूजा करनी ही चाहिए।
यहाँ बुद्ध उसे ना बेवकूफ बना रहे होंगे ना ही असमंजस की स्थिति बना रहे होंगे, वह तो उन दोनों के विश्वास को बल दे रहे हैं। जिससे दोनों अपनी राह पर तत्परता से चले और एक ऐसी स्थिति पर पहुँच जाये जहां ईश्वर है या नहीं इसका द्वंद्व ख़त्म हो जाये।
जब उस स्थिति को अनुभव कर पाओगे या उस स्थिति को जीने लगोगे। तब फिर उसी बात को अलग अलग ढंग से कह सकोगे। उससे पहले सब उधार की बातें हैं।
आज अगर 100 कामनाएं है तो वो हो सकता है 5 अलग अलग शरीर धारण कर ले । उन 5 शरीरों द्वारा उन 100 कामनाओं की पूर्ति के उद्देश्य से एक साथ 5 जन्म होंगे।
ऐसा मेरा सोचना है
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एक ही बात को कहने के अलग अलग तरीके हैं। इसलिए तो भारत में अलग अलग दर्शन हुए... कुछ ने आत्मा को स्थान दिया, कुछ ने नहीं दिया।
तुम्हारी बातें भी कुछ स्तर पर ठीक हैं -
लेकिन हमें यहां समझना होगा, क्या हम ऐसा सोच लेने से या सुन लेने से या मान लेने से किसी लाभ को प्राप्त करते हैं तो उत्तर होगा नहीं।
दिक़्क़त यह होती है उसे शब्दों में कहने की कोशिश की जाती है जो शब्दों में पूरी तरह कभी समझा ही नहीं जा सकेगा। लेकिन हर सदी में एक गुरु अपनी तरफ़ से प्रयास करता ही रहा है उसे कुछ आसान शब्दों में कह दिया जाये; गुरु जानता है कोई कभी शब्दों में समझ नहीं पायेगा लेकिन हाँ यात्रा कि शुरुआत के लिए ये शब्द बड़े ज़रूरी होते हैं। इसलिए जब प्रश्नकर्ता बदल जाते हैं तो गुरुओं के उत्तर बदल जाते हैं।
कहते हैं, एक बार बुद्ध किसी गाँव में विहार कर रहे थे तो उनसे किसी ने पूछा -
भगवान मेरा मानना है ईश्वर नहीं होते हैं यह बस लोगों में स्थिरता और शान्ति बनाये रखने के लिए मान लिये गये हैं। आपका इस बारे में क्या कहना है।
बुद्ध ने तत्काल उत्तर दिया - तुम सही सोचते हो।
उसी शाम किसी दूसरे व्यक्ति ने पूछा - भगवान, मेरी बड़ी आस्था है ईश्वर में मुझे उनकी पूजा अर्चना करके गहरी शान्ति मिलती है। आपका इस बारे में क्या मत है? क्या ईश्वर हैं, क्या उनकी पूजा करना ठीक है?
बुद्ध ने तत्काल उत्तर दिया - तुम सही हो, ईश्वर की पूजा करनी ही चाहिए।
यहाँ बुद्ध उसे ना बेवकूफ बना रहे होंगे ना ही असमंजस की स्थिति बना रहे होंगे, वह तो उन दोनों के विश्वास को बल दे रहे हैं। जिससे दोनों अपनी राह पर तत्परता से चले और एक ऐसी स्थिति पर पहुँच जाये जहां ईश्वर है या नहीं इसका द्वंद्व ख़त्म हो जाये।
जब उस स्थिति को अनुभव कर पाओगे या उस स्थिति को जीने लगोगे। तब फिर उसी बात को अलग अलग ढंग से कह सकोगे। उससे पहले सब उधार की बातें हैं।
🙏
For Yoga Day on June 21st, let's maintain the same dress code as last year: a white T-shirt paired with blue or black pants. As some yoga practitioners have suggested, we can enhance this year's T-shirt by adding the "Dhyan Kaksha" logo and motto.
I am sharing the T-shirt design and logo artwork here in the group.
You can choose to have the T-shirts printed either online or at a local shop.
For those attending online classes only, get your T-shirts printed and send me a picture on Yoga Day wearing them.
All pictures will be featured on the DhyanKakshaOrg Instagram account.
Thank you!
🙏
योग दिवस 21 जून को, आइए पिछले साल की तरह ही ड्रेस कोड बनाए रखें: एक सफेद टी-शर्ट के साथ नीली या काली पैंट। जैसा कि कुछ योग साधकों ने सुझाव दिया है, हम इस साल की टी-शर्ट को "ध्यान कक्ष" लोगो और स्लोगन जोड़कर बेहतर बना सकते हैं।
मैं समूह में टी-शर्ट डिज़ाइन और प्रिंट के लिए logo साझा कर रहा हूँ।
आप टी-शर्ट को ऑनलाइन या किसी स्थानीय दुकान पर प्रिंट करवा सकते हैं।
जो लोग ऑनलाइन कक्षाओं में भाग ले रहे हैं, योग दिवस के दिन "ध्यान कक्ष" के लोगो वाली टी-शर्ट पहनकर अपनी एक तस्वीर मुझे भेजें अथवा #DhyanKakshaOrg को टैग कर सकते हैं।
सभी तस्वीरें DhyanKakshaOrg इंस्टाग्राम पर पोस्ट की जाएंगी।
धन्यवाद!
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आप टी-शर्ट को ऑनलाइन या किसी स्थानीय दुकान पर प्रिंट करवा सकते हैं।
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गुरु का अस्तित्व शिष्यों के बिना अधूरा होता है, क्योंकि गुरु तभी सिखा सकता है जब शिष्य सीखने के लिए तैयार हो। हर गुरु की पहचान उसके शिष्यों के साथ ही होती है, जैसे श्री कृष्ण और अर्जुन, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद, अष्टावक्र और राजा जनक।
मुझे सौभाग्य मिला है कि मुझे आप सभी के साथ जुड़ने का अवसर प्राप्त हुआ। इसी भावना के साथ, आप सभी को "गुरु पूर्णिमा" की हार्दिक शुभकामनाएं
मुझे सौभाग्य मिला है कि मुझे आप सभी के साथ जुड़ने का अवसर प्राप्त हुआ। इसी भावना के साथ, आप सभी को "गुरु पूर्णिमा" की हार्दिक शुभकामनाएं
प्रणिपात 🙏🙏
मुझे बुद्ध के बारे में जानना है,
उनके गुरु कौन थे? उनकी यात्रा आदि के बारे में बतायें।
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इसको थोड़ा समझना होगा। तुम वह बिलकुल नहीं जानना चाहते जो किसी पुस्तक अथवा इंटरनेट पर उपलब्ध है। तुम बुद्ध को समझना चाहते हो, तुम समझना चाहते हो बुद्ध को किस गुरु ने बुद्ध बनाया या कौन सी यात्रा की जिससे वह बुद्ध बन गये।
बुद्ध का अर्थ होता है जो जान गया, जिसे बोध हो गया, जो जाग गया, जो आत्मज्ञान कर लिया और भी कई अर्थ निकलते हैं। लेकिन जानना, जागना अथवा आत्मज्ञान करना है, तो संभव है ऐसा कई और लोग कर सकते हैं। इसका मतलब बुद्ध एक नहीं कई हो सकते हैं।
हाँ बिलकुल!
फिर यह भी प्रश्न उठता है
- क्या जान लिया?
- सो रहा था क्या जो जाग गया ?
- और अब ये आत्मज्ञान क्या है ?
तो सबसे पहले यह समझो, हर एक इन्सान मोह, लोभ आदि के अज्ञानता में लिप्त है जिसे माया कह लो। जैसे ही इस माया द्वारा उत्पन्न हुए सच और झूठ में अन्तर समझ जाओगे तो जान जाओगे, जाग जाओगे, अपने मूल स्वरूप को समझ सकोगे। जो ऐसा कर पाते हैं उन्हें जाना हुआ कहते हैं, जागा हुआ कहते हैं अर्थात् बुद्ध कहते हैं।
संभवतः तुम यहां जिस बुद्ध के बारे में प्रश्न करना चाहते हो वो हैं सिद्दार्थ गौतम।
सिद्दार्थ एक राजकुमार थे, जिनके बारे में असित मुनि ने भविष्यवाणी की यह आगे चल के संन्यासी बनेंगे। सन्यासी न बन जाए इसके लिए, उनके पिता ने उनके लिए सारी व्यवस्था राजमहल के अंदर ही कर दी शिक्षाऐं, मनोरंजन आदि। कहते हैं बूढ़े और बीमार लोगों को राजमहल से बाहर रखा गया। फूल मुरझाने से पहले तोड़ लिए जाते ताकि सिद्धार्थ को कोई ऐसी चीज न दिखे जिससे वैराग्य उत्पन्न हो।
इस तरह सिद्दार्थ ने किसी तरह का कष्ट ही नहीं देखा, उनकी शादी के बाद जब पिता को भरोसा हुआ अब पुत्र संन्यास न लेगा, तब जाकर राज्य घूमने की अनुमति दी।
घूमने के दौरान जब उन्होंने एक ही दिन में पहली बार एक बूढ़े को, एक बीमार को, एक मृत शरीर को और एक साधु को देखा। तो उनके अंदर दुःख की वेदना इतनी हुई कि उन्होंने संन्यास लिया और ज्ञान प्राप्ति के लिए निकले।
अब यहां यह भी समझना है जब सिद्धार्थ घर से निकल रहे तब वह एक साधारण राजकुमार हैं। इस दौरान संभव है शुरुआत में अलग-अलग गुरुओं के आश्रम में गए होंगे और वहां सीखा होगा।
यह 2500 साल पुराना इतिहास है, इतिहास लिखने में शब्दों के चयन, भाषा के बदलाव, समय का बड़ा अन्तराल बहुत कुछ जोड़ या घटा देता है शब्द बदल जाते हैं तो अलग से अर्थ दिखने लगते हैं।
इसलिए इतिहास में दिखता है -
सिद्धार्थ के जो पहले गुरु हुए उनका नाम कौंडिण्य ऋषि था जो पहले उनके गुरु, फिर गुरु भाई बाद में बुद्ध के शिष्य भी हुए।
उनके दो गुरु "उदाका रामपुत्त" और "अनार कलाम" हुए।
कहीं कहीं उनके गुरु में नाम सब्बमित्त भी दिखता है।
लेकिन यह भी स्पष्ट दिखता है बुद्ध के उपदेश से आखिरी में उन्होंने मुक्ति के लिए एक अलग ही मार्ग "अष्टांगिक मार्ग" की खोज की। इस तरह उन्होंने अपने आपको ही अपना गुरु बना लिया। उनके एक उपदेश "अप्प दीपो भव" से भी स्पष्ट पता चलता है।
अब इसमें कोई कहे सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के कोई गुरु नहीं थे या कोई कहे गुरु थे ही। दोनों सच या झूठ हो सकता है।
इसे ज़रा ढंग से समझना, बुद्ध जैसी घटना आम बात तो है नहीं। तो कोई इन्सान जो बुद्ध हो गया हो, भगवान ही हो गए फिर उनके गुरु कैसे हो सकते हैं। भगवान के गुरु कैसे हो सकता है कोई ?
दूसरा तर्क कहता है,
शुरुआत तो कहीं न कहीं से की ही गई होगी। तर्क शक्ति तो यही समर्थन देगी न। तो क्या दूसरा पक्ष बे बुनियाद है ?
नहीं, दूसरा पक्ष भी गलत नहीं है।
कैसे कहा जाये उन बातों को जो शब्दों से परे हैं,
तब ऐसी उपमाएँ दी जाती है, तब ऐसे शब्दों के चयन किए जाते हैं।
जो भगवान हैं उनको कोई कैसे सिखा सकता है।
नहीं ही सिखाना चाहिए।
उन्हें सब कुछ स्वयं सीख ही लेना चाहिए।
एक और उदाहरण से समझो,
जैसे रावण के १० सिर, अब अनुमान लगा के देखो अगर किसी के पास दस सिर होते हैं वह सम्भालेगा कैसे ? एक शरीर के अनुपात में १० सिर लगा लोगे तो चलना, उठना बैठना सब मुश्किल हो जाए। तर्क तो यही कहता है कि ऐसा नहीं हो सकता।
परंतु ऐसा होना चाहिए, जो इन्सान इतना बलशाली है जो इन्द्र को भी हरा दे वह साधारण नहीं होना चाहिए उसके १० सिर होने ही चाहिए, उसके २० हाथ होने ही चाहिए।
यहाँ दोनों बातें रावण के शक्तिशाली होने की बस व्याख्या करने के लिए प्रयोग में लाए गए होंगे।
यहाँ सिर्फ़ यह समझाया जा रहा है, जो रावण जैसा बलशाली है वह कैसा है?
जो बुद्ध हो जाते हैं वो कैसे होते हैं ?
यह सहज दृष्टिकोण तभी संभव हो सकेगा जब निष्पक्ष रूप से किसी भी विषय को देखने का अभ्यास करते रहोगे।
मुझे बुद्ध के बारे में जानना है,
उनके गुरु कौन थे? उनकी यात्रा आदि के बारे में बतायें।
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इसको थोड़ा समझना होगा। तुम वह बिलकुल नहीं जानना चाहते जो किसी पुस्तक अथवा इंटरनेट पर उपलब्ध है। तुम बुद्ध को समझना चाहते हो, तुम समझना चाहते हो बुद्ध को किस गुरु ने बुद्ध बनाया या कौन सी यात्रा की जिससे वह बुद्ध बन गये।
बुद्ध का अर्थ होता है जो जान गया, जिसे बोध हो गया, जो जाग गया, जो आत्मज्ञान कर लिया और भी कई अर्थ निकलते हैं। लेकिन जानना, जागना अथवा आत्मज्ञान करना है, तो संभव है ऐसा कई और लोग कर सकते हैं। इसका मतलब बुद्ध एक नहीं कई हो सकते हैं।
हाँ बिलकुल!
फिर यह भी प्रश्न उठता है
- क्या जान लिया?
- सो रहा था क्या जो जाग गया ?
- और अब ये आत्मज्ञान क्या है ?
तो सबसे पहले यह समझो, हर एक इन्सान मोह, लोभ आदि के अज्ञानता में लिप्त है जिसे माया कह लो। जैसे ही इस माया द्वारा उत्पन्न हुए सच और झूठ में अन्तर समझ जाओगे तो जान जाओगे, जाग जाओगे, अपने मूल स्वरूप को समझ सकोगे। जो ऐसा कर पाते हैं उन्हें जाना हुआ कहते हैं, जागा हुआ कहते हैं अर्थात् बुद्ध कहते हैं।
संभवतः तुम यहां जिस बुद्ध के बारे में प्रश्न करना चाहते हो वो हैं सिद्दार्थ गौतम।
सिद्दार्थ एक राजकुमार थे, जिनके बारे में असित मुनि ने भविष्यवाणी की यह आगे चल के संन्यासी बनेंगे। सन्यासी न बन जाए इसके लिए, उनके पिता ने उनके लिए सारी व्यवस्था राजमहल के अंदर ही कर दी शिक्षाऐं, मनोरंजन आदि। कहते हैं बूढ़े और बीमार लोगों को राजमहल से बाहर रखा गया। फूल मुरझाने से पहले तोड़ लिए जाते ताकि सिद्धार्थ को कोई ऐसी चीज न दिखे जिससे वैराग्य उत्पन्न हो।
इस तरह सिद्दार्थ ने किसी तरह का कष्ट ही नहीं देखा, उनकी शादी के बाद जब पिता को भरोसा हुआ अब पुत्र संन्यास न लेगा, तब जाकर राज्य घूमने की अनुमति दी।
घूमने के दौरान जब उन्होंने एक ही दिन में पहली बार एक बूढ़े को, एक बीमार को, एक मृत शरीर को और एक साधु को देखा। तो उनके अंदर दुःख की वेदना इतनी हुई कि उन्होंने संन्यास लिया और ज्ञान प्राप्ति के लिए निकले।
अब यहां यह भी समझना है जब सिद्धार्थ घर से निकल रहे तब वह एक साधारण राजकुमार हैं। इस दौरान संभव है शुरुआत में अलग-अलग गुरुओं के आश्रम में गए होंगे और वहां सीखा होगा।
यह 2500 साल पुराना इतिहास है, इतिहास लिखने में शब्दों के चयन, भाषा के बदलाव, समय का बड़ा अन्तराल बहुत कुछ जोड़ या घटा देता है शब्द बदल जाते हैं तो अलग से अर्थ दिखने लगते हैं।
इसलिए इतिहास में दिखता है -
सिद्धार्थ के जो पहले गुरु हुए उनका नाम कौंडिण्य ऋषि था जो पहले उनके गुरु, फिर गुरु भाई बाद में बुद्ध के शिष्य भी हुए।
उनके दो गुरु "उदाका रामपुत्त" और "अनार कलाम" हुए।
कहीं कहीं उनके गुरु में नाम सब्बमित्त भी दिखता है।
लेकिन यह भी स्पष्ट दिखता है बुद्ध के उपदेश से आखिरी में उन्होंने मुक्ति के लिए एक अलग ही मार्ग "अष्टांगिक मार्ग" की खोज की। इस तरह उन्होंने अपने आपको ही अपना गुरु बना लिया। उनके एक उपदेश "अप्प दीपो भव" से भी स्पष्ट पता चलता है।
अब इसमें कोई कहे सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के कोई गुरु नहीं थे या कोई कहे गुरु थे ही। दोनों सच या झूठ हो सकता है।
इसे ज़रा ढंग से समझना, बुद्ध जैसी घटना आम बात तो है नहीं। तो कोई इन्सान जो बुद्ध हो गया हो, भगवान ही हो गए फिर उनके गुरु कैसे हो सकते हैं। भगवान के गुरु कैसे हो सकता है कोई ?
दूसरा तर्क कहता है,
शुरुआत तो कहीं न कहीं से की ही गई होगी। तर्क शक्ति तो यही समर्थन देगी न। तो क्या दूसरा पक्ष बे बुनियाद है ?
नहीं, दूसरा पक्ष भी गलत नहीं है।
कैसे कहा जाये उन बातों को जो शब्दों से परे हैं,
तब ऐसी उपमाएँ दी जाती है, तब ऐसे शब्दों के चयन किए जाते हैं।
जो भगवान हैं उनको कोई कैसे सिखा सकता है।
नहीं ही सिखाना चाहिए।
उन्हें सब कुछ स्वयं सीख ही लेना चाहिए।
एक और उदाहरण से समझो,
जैसे रावण के १० सिर, अब अनुमान लगा के देखो अगर किसी के पास दस सिर होते हैं वह सम्भालेगा कैसे ? एक शरीर के अनुपात में १० सिर लगा लोगे तो चलना, उठना बैठना सब मुश्किल हो जाए। तर्क तो यही कहता है कि ऐसा नहीं हो सकता।
परंतु ऐसा होना चाहिए, जो इन्सान इतना बलशाली है जो इन्द्र को भी हरा दे वह साधारण नहीं होना चाहिए उसके १० सिर होने ही चाहिए, उसके २० हाथ होने ही चाहिए।
यहाँ दोनों बातें रावण के शक्तिशाली होने की बस व्याख्या करने के लिए प्रयोग में लाए गए होंगे।
यहाँ सिर्फ़ यह समझाया जा रहा है, जो रावण जैसा बलशाली है वह कैसा है?
जो बुद्ध हो जाते हैं वो कैसे होते हैं ?
यह सहज दृष्टिकोण तभी संभव हो सकेगा जब निष्पक्ष रूप से किसी भी विषय को देखने का अभ्यास करते रहोगे।
एक और बात स्पष्ट रूप से समझना, बुद्ध महत्वपूर्ण हैं बुद्ध की कहानियाँ नहीं। कहानी में जोड़ घटाव हो सकता है बुद्ध में नहीं, राम में नहीं। तो कहानी जितनी बुद्धि के स्तर तक आती है उतनी ही रखो। और बुद्ध के जैसा, राम के जैसा, कृष्ण के जैसा, अर्जुन के जैसा बनने का अभ्यास करो।
तुम बुद्ध या किसी को भी समझना ही इसलिए चाहते हो कि उनके निशानों पर चल सको,
बस यात्रा शुरू करो। कुछ कदम चलोगे, आगे स्वयं स्पष्ट दिखना शुरू हो जाएगा। हर जगह गुरु मिलते ही जाएँगे, चाहे कोई दूसरे गुरु हों अथवा तुम स्वयं हो। एक छोटे से टॉर्च की रोशनी भले ही ५ किमी दूर ना पहुँचें लेकिन उसी टॉर्च के सहारे ५ क्या १५ किमी भी अंधेरे में चले जा सकते हो।
यह भी समझना -
बुद्ध और महावीर ने घर छोड़कर ज्ञान प्राप्त किया।
गुरुनानक संसार में।
रामकृष्ण परमहंस काली भक्ति में।
कबीर फ़क़ीरी में।
विष्णु विलास में निवास करते हैं।
शिव श्मशान में।
संभावना सब जगह १००% है
बस ध्यान का अभ्यास करते रहो
तुम बुद्ध या किसी को भी समझना ही इसलिए चाहते हो कि उनके निशानों पर चल सको,
बस यात्रा शुरू करो। कुछ कदम चलोगे, आगे स्वयं स्पष्ट दिखना शुरू हो जाएगा। हर जगह गुरु मिलते ही जाएँगे, चाहे कोई दूसरे गुरु हों अथवा तुम स्वयं हो। एक छोटे से टॉर्च की रोशनी भले ही ५ किमी दूर ना पहुँचें लेकिन उसी टॉर्च के सहारे ५ क्या १५ किमी भी अंधेरे में चले जा सकते हो।
यह भी समझना -
बुद्ध और महावीर ने घर छोड़कर ज्ञान प्राप्त किया।
गुरुनानक संसार में।
रामकृष्ण परमहंस काली भक्ति में।
कबीर फ़क़ीरी में।
विष्णु विलास में निवास करते हैं।
शिव श्मशान में।
संभावना सब जगह १००% है
बस ध्यान का अभ्यास करते रहो
ध्यान क्या है?
कैसे पता चले ध्यान की वह अवस्था जिससे हम वास्तविक सच को जान सकें।
प्रामाणिक ध्यान के बारे में बताइये।
बहुत समय से आपके आर्टिकल को पढ़ता आ रहा हूँ, पहली बार प्रश्न कर रहा हूँ। कृपया इसका उत्तर दें।
-----
ध्यान क्या है?
इसको साधारण शब्दों में समझने का प्रयास करते हैं।
ध्यान एक प्रक्रिया नहीं है, अवस्था है। उस अवस्था तक पहुँचने की जो क्रिया है, जो अभ्यास है, उसके लिये अलग से शब्द का प्रयोग ना करते हुए ध्यान ही शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है।
महर्षि पतंजलि ने इसे धारणा कहा है।
"अपने चित्त को किसी भी एक स्थान पर ( शरीर के अंदर या बाहर ) केन्द्रित करना धारणा कहलाती है और जब यह स्थिति गहरी हो जाती है तो उसे ही ध्यान की अवस्था कहते हैं।"
इसे थोड़ा सा और आसान करके समझने की कोशिश करते हैं,
जब कोई साधक किसी भी वस्तु विशेष पर अपने ज्ञानेंद्रिय को लंबे समय के स्थिर कर लेता है उसे धारणा कहते हैं दूसरे शब्दों में एकाग्रता कह लो।
जब एक ऐसी अवस्था आ जाती है, साधक वस्तु विशेष के एकात्म अनुभव करने लगता है वही है ध्यान की स्थिति।
तो जो हम सब ध्यान के लिए अभ्यास करते हैं वास्तव में एकाग्रता के लिए अभ्यास करते हैं, जैसे जैसे एकाग्रता अर्थात् धारणा गहरी होगी ध्यान की अवस्था तक पहुँचने लगोगे।
//// कैसे पता चले ध्यान की वह अवस्था जिससे हम वास्तविक सच को जान सकें।///
वास्तविक सच, परम ज्ञान - ऐसा ज्ञान जिसे जानने के बाद के कुछ जानने को ना रह जाए। उस अवस्था तक पहुँचने के लिये ध्यान के अभ्यास की निरंतरता चाहिए।
जब धारणा गहरी होती है, तो ध्यान की अवस्था होती है, जब ध्यान गहरा हो जाता है तब समाधि की अवस्था कहलाती है।
या इसे ऐसे कह लो
पड़ाव एक को धारणा,
पड़ाव दो को ध्यान,
और पड़ाव तीन को समाधि कहते हैं।
तो जब इंसान समाधि की स्थिति में पहुँचता है तब उसे वास्तविक ज्ञान होता है।
ऐसा क्यों होता है, इसको ऐसे समझते हैं ।
हमारा मन है जो, उसका भटकना स्वभाव है और जब तक मन भटकता रहता है हमें दुःख और सुख का अनुभव होते रहता है। दुःख और सुख भी शाश्वत नहीं हो सकता है क्योकि वह मनोजनित है और मन के भटकते ही बदल जायेगा। है ना।
तो जब ध्यान अभ्यास के लिये जब अपने मन को नियंत्रित करते जाते हो, उसका भटकाव कम होने लगता है, समाधि की स्थिति तक पहुँचते तक मन स्थिर हो जाता है।
तब जो बच जाता है वह शाश्वत होता है क्योंकि उसे मन ने नहीं उत्पन्न किया है, उसी को कैवल्य ज्ञान, परम ज्ञान या सच्चा ज्ञान कहते हैं।
उस स्थिति के बाद में सारे प्रश्न छूट जाते हैं।
इस बात को भी समझना, उस स्थिति तक पहुँचने में समय लगता है। क्योंकि मन को पूर्णतः नियंत्रित कर लेना बहुत आसान भी नहीं है।
कितना समय लगता है ? यह अभ्यास पर निर्भर करता है।
होने को यह घटना एक क्षण में हो जाये, नहीं तो जन्मों लग जाये। लेकिन पहुँच पाना संभव है और यात्रा एक कदम से ही शुरू होती है।
जब अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा,
इस चंचल मन को कैसे वश में किया जा सकेगा यह तो हवा को नियंत्रित करने से भी कठिन है।
तब श्री कृष्ण ने उत्तर में कहा,
चंचल तो है लेकिन अभ्यास और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है।
/// प्रामाणिक ध्यान के बारे में बताइये ///
देखो योग व ध्यान भारत के प्राचीन समय से समाज का हिस्सा रहा है,
तो अभी जो वर्तमान में जो पद्धतियाँ दिखायी पड़ती है अलग-अलग दर्शनों से आती है।
कहीं साकार ध्यान की व्यवस्था है कहीं निराकार, कहीं मिश्रित।
परंतु लक्ष्य किसी का भी अलग नहीं है।
इसलिए ऐसा नहीं है कोई ध्यान कम प्रमाणिक है और कोई ज़्यादा।
सभी रास्ते सही है और शुरुआत में सभी रास्ते आसान या कठिन दिख सकते हैं या सही या ग़लत जान पड़ सकते हैं। जैसे-जैसे रास्ते पर आगे बढ़ोगे पूरी तरह अभ्यास और निष्ठा निर्भर करेगा कि आगे का मार्ग कैसा रहने वाला है। हाँ कठिनियाँ आएगी, हर रास्ते में आएगी, गुरुओं का सपोर्ट भी मिलेगा, हर रास्ते में ऐसा ही होगा।
इसलिए अगर किसी भी गुरु, या किसी भी पद्धति से ध्यान का अभ्यास करते हो तो उसे जारी रखो उसमें निरंतरता लाओ। सिर्फ़ भटकाव मदद नहीं करेगा।
हाँ, एक यह बात याद रखना,
ध्यान व योग कोई चमत्कार नहीं है, अगर कोई चमत्कार की तरह परोसे तो तुरंत भाग खड़े होना।
/// पहचानोगे कैसे आप सही दिशा में जा रहे हैं ///
कुछ मंत्र दे रहा हूँ इसको भूलना नहीं
तुम्हारे अंदर सकारात्मक विचारों उदय होने लगेगा।
तुम अपने ग़ुस्से आदि अधोगामी गुणों को जल्दी नियंत्रण में करने लगोगे ।
तुम्हारे अंदर दया और करुणा उत्पन्न होने लगेगी।
तुम्हारे अंदर सहनशीलता बढ़ने लगेगी ।
तुम्हारे अन्दर क्षमाशीलता भी बढ़ने लगेगी।
सब कुछ एक ही दिन में बदल जाएगा ऐसा संभव नहीं है, लेकिन कुछ अंश का परिवर्तन स्वयं अनुभव करने लगोगे।
कुछ ध्यान की विधियाँ अभ्यास के लिये जल्दी ही वेबसाईट पर लिखकर उपलब्ध कराऊँगा।
ॐ
कैसे पता चले ध्यान की वह अवस्था जिससे हम वास्तविक सच को जान सकें।
प्रामाणिक ध्यान के बारे में बताइये।
बहुत समय से आपके आर्टिकल को पढ़ता आ रहा हूँ, पहली बार प्रश्न कर रहा हूँ। कृपया इसका उत्तर दें।
-----
ध्यान क्या है?
इसको साधारण शब्दों में समझने का प्रयास करते हैं।
ध्यान एक प्रक्रिया नहीं है, अवस्था है। उस अवस्था तक पहुँचने की जो क्रिया है, जो अभ्यास है, उसके लिये अलग से शब्द का प्रयोग ना करते हुए ध्यान ही शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है।
महर्षि पतंजलि ने इसे धारणा कहा है।
"अपने चित्त को किसी भी एक स्थान पर ( शरीर के अंदर या बाहर ) केन्द्रित करना धारणा कहलाती है और जब यह स्थिति गहरी हो जाती है तो उसे ही ध्यान की अवस्था कहते हैं।"
इसे थोड़ा सा और आसान करके समझने की कोशिश करते हैं,
जब कोई साधक किसी भी वस्तु विशेष पर अपने ज्ञानेंद्रिय को लंबे समय के स्थिर कर लेता है उसे धारणा कहते हैं दूसरे शब्दों में एकाग्रता कह लो।
जब एक ऐसी अवस्था आ जाती है, साधक वस्तु विशेष के एकात्म अनुभव करने लगता है वही है ध्यान की स्थिति।
तो जो हम सब ध्यान के लिए अभ्यास करते हैं वास्तव में एकाग्रता के लिए अभ्यास करते हैं, जैसे जैसे एकाग्रता अर्थात् धारणा गहरी होगी ध्यान की अवस्था तक पहुँचने लगोगे।
//// कैसे पता चले ध्यान की वह अवस्था जिससे हम वास्तविक सच को जान सकें।///
वास्तविक सच, परम ज्ञान - ऐसा ज्ञान जिसे जानने के बाद के कुछ जानने को ना रह जाए। उस अवस्था तक पहुँचने के लिये ध्यान के अभ्यास की निरंतरता चाहिए।
जब धारणा गहरी होती है, तो ध्यान की अवस्था होती है, जब ध्यान गहरा हो जाता है तब समाधि की अवस्था कहलाती है।
या इसे ऐसे कह लो
पड़ाव एक को धारणा,
पड़ाव दो को ध्यान,
और पड़ाव तीन को समाधि कहते हैं।
तो जब इंसान समाधि की स्थिति में पहुँचता है तब उसे वास्तविक ज्ञान होता है।
ऐसा क्यों होता है, इसको ऐसे समझते हैं ।
हमारा मन है जो, उसका भटकना स्वभाव है और जब तक मन भटकता रहता है हमें दुःख और सुख का अनुभव होते रहता है। दुःख और सुख भी शाश्वत नहीं हो सकता है क्योकि वह मनोजनित है और मन के भटकते ही बदल जायेगा। है ना।
तो जब ध्यान अभ्यास के लिये जब अपने मन को नियंत्रित करते जाते हो, उसका भटकाव कम होने लगता है, समाधि की स्थिति तक पहुँचते तक मन स्थिर हो जाता है।
तब जो बच जाता है वह शाश्वत होता है क्योंकि उसे मन ने नहीं उत्पन्न किया है, उसी को कैवल्य ज्ञान, परम ज्ञान या सच्चा ज्ञान कहते हैं।
उस स्थिति के बाद में सारे प्रश्न छूट जाते हैं।
इस बात को भी समझना, उस स्थिति तक पहुँचने में समय लगता है। क्योंकि मन को पूर्णतः नियंत्रित कर लेना बहुत आसान भी नहीं है।
कितना समय लगता है ? यह अभ्यास पर निर्भर करता है।
होने को यह घटना एक क्षण में हो जाये, नहीं तो जन्मों लग जाये। लेकिन पहुँच पाना संभव है और यात्रा एक कदम से ही शुरू होती है।
जब अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा,
इस चंचल मन को कैसे वश में किया जा सकेगा यह तो हवा को नियंत्रित करने से भी कठिन है।
तब श्री कृष्ण ने उत्तर में कहा,
चंचल तो है लेकिन अभ्यास और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है।
/// प्रामाणिक ध्यान के बारे में बताइये ///
देखो योग व ध्यान भारत के प्राचीन समय से समाज का हिस्सा रहा है,
तो अभी जो वर्तमान में जो पद्धतियाँ दिखायी पड़ती है अलग-अलग दर्शनों से आती है।
कहीं साकार ध्यान की व्यवस्था है कहीं निराकार, कहीं मिश्रित।
परंतु लक्ष्य किसी का भी अलग नहीं है।
इसलिए ऐसा नहीं है कोई ध्यान कम प्रमाणिक है और कोई ज़्यादा।
सभी रास्ते सही है और शुरुआत में सभी रास्ते आसान या कठिन दिख सकते हैं या सही या ग़लत जान पड़ सकते हैं। जैसे-जैसे रास्ते पर आगे बढ़ोगे पूरी तरह अभ्यास और निष्ठा निर्भर करेगा कि आगे का मार्ग कैसा रहने वाला है। हाँ कठिनियाँ आएगी, हर रास्ते में आएगी, गुरुओं का सपोर्ट भी मिलेगा, हर रास्ते में ऐसा ही होगा।
इसलिए अगर किसी भी गुरु, या किसी भी पद्धति से ध्यान का अभ्यास करते हो तो उसे जारी रखो उसमें निरंतरता लाओ। सिर्फ़ भटकाव मदद नहीं करेगा।
हाँ, एक यह बात याद रखना,
ध्यान व योग कोई चमत्कार नहीं है, अगर कोई चमत्कार की तरह परोसे तो तुरंत भाग खड़े होना।
/// पहचानोगे कैसे आप सही दिशा में जा रहे हैं ///
कुछ मंत्र दे रहा हूँ इसको भूलना नहीं
तुम्हारे अंदर सकारात्मक विचारों उदय होने लगेगा।
तुम अपने ग़ुस्से आदि अधोगामी गुणों को जल्दी नियंत्रण में करने लगोगे ।
तुम्हारे अंदर दया और करुणा उत्पन्न होने लगेगी।
तुम्हारे अंदर सहनशीलता बढ़ने लगेगी ।
तुम्हारे अन्दर क्षमाशीलता भी बढ़ने लगेगी।
सब कुछ एक ही दिन में बदल जाएगा ऐसा संभव नहीं है, लेकिन कुछ अंश का परिवर्तन स्वयं अनुभव करने लगोगे।
कुछ ध्यान की विधियाँ अभ्यास के लिये जल्दी ही वेबसाईट पर लिखकर उपलब्ध कराऊँगा।
ॐ
प्रश्न - जिज्ञासा विराट रूप धारण करती जा रही है. कुछ भी अच्छा नहीं लगता। कृपया मेरा मार्गदर्शन करें
उत्तर - जिज्ञासा बहुत ही अच्छी चीज है, यही तुम्हें हर वक्त बेहतर बनाएगा।
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प्रश्न - मेरे अन्दर का अहंकार खत्म नहीं हो रहा
उत्तर - पूर्ण रूप से अहंकार तभी खत्म होगा जब ज्ञान प्राप्त होगा या कहो अहंकार का खत्म हो जाना ही ज्ञान प्राप्त करने की अवस्था है। अभ्यास करते रहना ही एक मात्र उपाय है
--------
प्रश्न - वेद शास्त्र सिर्फ प्रश्नों को पैदा करके छोड़ देते हैं।
उत्तर - कुछ हद तक तुम्हारी बात सही है, लेकिन तुम्हारे लिए यह सच नहीं है क्योंकि तुमने वेद - शास्त्र का गहन अध्ययन नहीं किया। इसलिए ऐसा तुम नहीं कह सकते। अगर यह सच है भी तो तुम्हारा सच नहीं।
--------
प्रश्न - किसी से चर्चा करूँ तो वो मुझे पथभ्रष्ट समझता है और कहता है कि तुम हिन्दू धर्म का अपमान कर रहे हो।
उत्तर - बहुत सी भ्रांतियां हैं, बहुत कुछ मिक्स हो गया है। इसलिए कुछ लोग कट्टर पक्षपाती और कुछ कट्टर विरोधी हो जाते हैं। तुम्हें दोनों से अलग रहने का अभ्यास करना चाहिए।
--------
प्रश्न - मुझे महात्मा बुद्ध की कहानियों में भी संशय मालूम होता है।
उत्तर - उनकी कहानियों में भी संशय होना स्वाभाविक है,
जो इतिहास होता है उसे बोलते - कहते समय अतिशयोक्ति शब्दों का प्रयोग कर लेते हैं। इसलिए 100% कहानी पर विश्वास करने की जरूरत भी नहीं पड़ती है। बुद्ध की कहानी में महत्वपूर्ण बुद्ध हैं उनकी कहानियां नहीं, इसे समझना होगा।
--------
प्रश्न - या कहानिया झूठी रही या कहने वाला, मुझे मालूम है कि इनका उत्तर मुझे स्वम खोजना है पर कैसे ?
उत्तर - किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं खोजना, स्वयं को खोजो। जब तुम्हें तुम मिलोगे फिर किसी कहानी, किसी उदाहरण की आवश्यकता नहीं रह जाएगी।
---------
प्रश्न - मुझे अपने शास्त्रों से बड़ी लंबी शिकायत है
उत्तर - संभव है, बहुत सारी बातें हिन्दू शास्त्र हों अथवा किसी भी धर्म के हों उन्हें समझना होगा। उसमें कुछ बातें उपमाओं के रूप में लिखा गया है कहानी को सहज और रोचक करके समझाने के लिए।
दस सिर, 20 हाथ का होना, यह एक उपमा होना चाहिए। नहीं तो सोचो तुम्हारे अगर 4-6 हाथ और जोड़ दिया जाए तो क्या तुम कोई भी काम कर सकोगे ?
लेकिन कहने के लिए कहा जाता है, वह ऐसे काम कर रहा है जैसे उसके 6 हाथ लगे हों।
--------
प्रश्न - मैं ये भी नहीं कहता कि शास्त्र सब गलत है पर उनमें बड़ा झंझट मालूम होता है। या मैं उन्हें सही अर्थ में समझ नहीं पाता ये भी हो सकता है।
उत्तर - आज जिस तरह हम मोबाइल में चैट करते समय शब्दों का प्रयोग करते हैं आधे अधूरे। आज से 100 साल बाद कुछ शब्दों, वाक्यों आदि का अर्थ निकालना असंभव हो जायेगा या फिर आम बात नहीं रह जायेगी। उसी तरह समय और स्थिति के अनुसार शास्त्रों को लिखने के लिये शब्दों के प्रयोग किये जाते रहे हैं। इसलिए कभी-कभी अप्रासंगिक से मालूम पड़ते हैं।
उत्तर - जिज्ञासा बहुत ही अच्छी चीज है, यही तुम्हें हर वक्त बेहतर बनाएगा।
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प्रश्न - मेरे अन्दर का अहंकार खत्म नहीं हो रहा
उत्तर - पूर्ण रूप से अहंकार तभी खत्म होगा जब ज्ञान प्राप्त होगा या कहो अहंकार का खत्म हो जाना ही ज्ञान प्राप्त करने की अवस्था है। अभ्यास करते रहना ही एक मात्र उपाय है
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प्रश्न - वेद शास्त्र सिर्फ प्रश्नों को पैदा करके छोड़ देते हैं।
उत्तर - कुछ हद तक तुम्हारी बात सही है, लेकिन तुम्हारे लिए यह सच नहीं है क्योंकि तुमने वेद - शास्त्र का गहन अध्ययन नहीं किया। इसलिए ऐसा तुम नहीं कह सकते। अगर यह सच है भी तो तुम्हारा सच नहीं।
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प्रश्न - किसी से चर्चा करूँ तो वो मुझे पथभ्रष्ट समझता है और कहता है कि तुम हिन्दू धर्म का अपमान कर रहे हो।
उत्तर - बहुत सी भ्रांतियां हैं, बहुत कुछ मिक्स हो गया है। इसलिए कुछ लोग कट्टर पक्षपाती और कुछ कट्टर विरोधी हो जाते हैं। तुम्हें दोनों से अलग रहने का अभ्यास करना चाहिए।
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प्रश्न - मुझे महात्मा बुद्ध की कहानियों में भी संशय मालूम होता है।
उत्तर - उनकी कहानियों में भी संशय होना स्वाभाविक है,
जो इतिहास होता है उसे बोलते - कहते समय अतिशयोक्ति शब्दों का प्रयोग कर लेते हैं। इसलिए 100% कहानी पर विश्वास करने की जरूरत भी नहीं पड़ती है। बुद्ध की कहानी में महत्वपूर्ण बुद्ध हैं उनकी कहानियां नहीं, इसे समझना होगा।
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प्रश्न - या कहानिया झूठी रही या कहने वाला, मुझे मालूम है कि इनका उत्तर मुझे स्वम खोजना है पर कैसे ?
उत्तर - किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं खोजना, स्वयं को खोजो। जब तुम्हें तुम मिलोगे फिर किसी कहानी, किसी उदाहरण की आवश्यकता नहीं रह जाएगी।
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प्रश्न - मुझे अपने शास्त्रों से बड़ी लंबी शिकायत है
उत्तर - संभव है, बहुत सारी बातें हिन्दू शास्त्र हों अथवा किसी भी धर्म के हों उन्हें समझना होगा। उसमें कुछ बातें उपमाओं के रूप में लिखा गया है कहानी को सहज और रोचक करके समझाने के लिए।
दस सिर, 20 हाथ का होना, यह एक उपमा होना चाहिए। नहीं तो सोचो तुम्हारे अगर 4-6 हाथ और जोड़ दिया जाए तो क्या तुम कोई भी काम कर सकोगे ?
लेकिन कहने के लिए कहा जाता है, वह ऐसे काम कर रहा है जैसे उसके 6 हाथ लगे हों।
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प्रश्न - मैं ये भी नहीं कहता कि शास्त्र सब गलत है पर उनमें बड़ा झंझट मालूम होता है। या मैं उन्हें सही अर्थ में समझ नहीं पाता ये भी हो सकता है।
उत्तर - आज जिस तरह हम मोबाइल में चैट करते समय शब्दों का प्रयोग करते हैं आधे अधूरे। आज से 100 साल बाद कुछ शब्दों, वाक्यों आदि का अर्थ निकालना असंभव हो जायेगा या फिर आम बात नहीं रह जायेगी। उसी तरह समय और स्थिति के अनुसार शास्त्रों को लिखने के लिये शब्दों के प्रयोग किये जाते रहे हैं। इसलिए कभी-कभी अप्रासंगिक से मालूम पड़ते हैं।
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अगर कोई प्रश्न है, तो अवश्य लिखें ...
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युधिष्ठिर को धर्मराज क्यू कहा गया... जो कृत किए उनका क्या?
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इसे समझने के लिए थोड़ा हिन्दू धर्म और वेद व्यास को समझते हैं क्योंकि तुम्हारा यह प्रश्न महाभारत से आता है।
हिन्दू किसी संप्रदाय विशेष का नाम नहीं हो सकता इसमें अलग-अलग मत, पंथ, विचार आदि का मिश्रण स्पष्ट दिखता है। हाँ यह एक भौगोलिक स्थिति रही होगी जहां हर मत के लोग रहते होंगे और सबको मिलाकर हिंदू की संज्ञा दे दी गई होगी।
यह कब हुआ होगा यह एक अलग विषय है।
परन्तु विषय को आसानी से समझने के लिए, इस भारतीय धर्म को, हिन्दू धर्म से ही संबोधित करते हैं।
हिंदू ग्रंथों को विषय और उद्देश्य के आधार पर अलग-अलग श्रेणियों में बाँटा गया।
कुछ श्रुति कहलाये, कुछ स्मृति, कुछ इतिहास आदि आदि।
और महाभारत को इतिहास की श्रेणी में रखा जाता है।
अब आगे समझते हैं
क्योंकि हिन्दू धर्म बहुत ही पुराना धर्म है और शुरुआत में लिखने की परंपरा नहीं रही होगी। या शायद लिपि का विकास न हुआ हो तब से यह धर्म मानव समाज में व्यक्तिगत और सामाजिक विकास का काम करता रहा हो।
उस समय सारा ज्ञान श्रुति के रूप में यानि गुरु शिष्य परंपरा के साथ अगली पीढ़ी तक दी जाती थी।
कृष्ण द्वैपायन जिन्हें वेद व्यास के नाम से जानते हैं। उन्होंने उपस्थित ज्ञान को वर्गीकृत करके ४ वेदों में लिखित रूप से प्रस्तुत किया।
वेद व्यास ने ही महाभारत लिखा और “श्रीमद भगवद्गीता” महाभारत का ही हिस्सा है।
इसे इसलिए समझा, क्योंकि समझना होगा लेखक कौन हैं और किस तरह रचनाएँ कर सकने के योग्य हैं।
अब जिस ग्रंथ में गीता जैसा ज्ञान हो और रचयिता स्वयं वेद व्यास हो, उसे सिर्फ़ इतिहास नहीं कह सकते।
अगर मेरी मानो तो, महाभारत एक इतिहास तो है लेकिन किसी दर्शन से कम नहीं है।
अब आते हैं युधिष्ठिर पर
पहले ऐतिहासिक दृष्टिकोण से समझते हैं -
जब महाराज पाण्डु अपनी रानी कुंती और माद्री के साथ जंगल में थे, तो उन्हें एक ऋषि से शाप मिला - स्त्री संसर्ग करते ही उनकी मृत्यु हो जायेगी।
उस समय उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं है, तो राजा के रूप में चिंतित होना स्वाभाविक था। ऐसी विषम स्थिति में उन्हें कुंती को मिले वरदान की जानकारी मिली।
दुर्वासा ऋषि के वरदान से कुंती किसी भी देव, गंधर्व आदि का आह्वान करके उनसे पुत्र प्राप्ति कर सकती थी।
अब क्योंकि पाण्डु सत्यनिष्ठ और कर्तव्यपरायण व्यक्ति थे इसलिए उन्होंने ईच्छा रखी कि सबसे पहले धर्म के देवता को बुलाया जाये।
जिन्हें - धर्म या यम कहते हैं।
धर्म से जो पुत्र प्राप्त हुआ उन्हीं का नाम युधिष्ठिर है।
यह कोई साधारण पुत्र नहीं हैं जिनमें बाद में गुण विकसित किए जाने हैं, यह उद्देश्य को निश्चित रखते हुए प्राप्त किए गये हैं, धर्म के पुत्र हैं। है ना?
यहीं से नींव पड़ी, युद्धष्ठिर के धर्मराज नाम जुड़ने का।
एक कहानी आती है,
जहां उनके गुरु द्रोणाचार्य जब “सच बोलने का पाठ” पढ़ाते हैं तो उस दिन से उन्होंने सत्य बोलने का प्रण कर लिया।
हमें भी तो सिखाया जाता है, सच बोलो, अहिंसा करो, दया करो, दान करो … तो हम कितना प्रण ले पाते हैं और उनके भाइयों ने कितना लिया। विषम परिस्थिति में अक्सर लोग सत्य का साथ छोड़ देते हैं परन्तु उन्होंने नहीं छोड़ा।
एक और प्रसंग आता है,
जहां युद्ध के बाद वेश बदल कर शत्रुओं के घायलों की भी मदद करते हैं।
एक और प्रसंग आता है,
युद्ध के दौरान, अश्वत्थामा के मारे जाने की झूठी जानकारी गुरु को दे नहीं पाते हैं।
एक और प्रसंग आता है,
जब सरोवर के पानी से उनके सारे भाई मूर्छित हो जाते हैं, तब यक्ष द्वारा पूछे गये गूढ़ प्रश्नों के उत्तर दिये। जब बदले में एक भाई को जीवित करने की बारी आयी तो माद्री पुत्र नकुल का चयन किया।
जिस तरह के युद्ध के हालात थे ऐसे में, उन्हें शक्तिशाली अर्जुन या भीम को जीवित करना चाहिए था। वैसे भी नकुल सौतला भाई था। लेकिन उन्होंने दोनों माँओं एक एक पुत्र जीवित हों ऐसा सोचा।
वास्तव में, पूरे महाभारत में युधिष्ठिर को एक धर्म के साथ पाओगे इसलिए उन्हें धर्मराज की संज्ञा दी गई।
अब प्रश्न यह है कि,
जब धर्म पारायण हैं फिर उन्होंने जुआ क्यों खेला, भाइयों को दाव पर लगा दिया, राज्य गवाँ दिये, पत्नी तक को जुए में हार गये।
इसको ऐसे समझो,
यह उस समय के समाज को इंगित कर रहा है, हर समय का समाज एक जैसा नहीं रहता है और समाज के हिसाब से ही अलग-अलग धर्म तय किए जाते हैं।
धर्म के कई अर्थ होते हैं, उसमें एक अर्थ नियम भी है।
एक और बात को याद रखते हुए चलना - किसी भी पुस्तक, धर्म, ज्ञान आदि की ज़रूरत व्यक्तिगत और सामाजिक विकास एवं संचालन के लिए होती है।
उस समय एक राजा को जब कोई युद्ध के लिए या द्यूत के लिए, जुआ के लिए कोई ललकार दे वह उसे ना नहीं कर सकता अन्यथा वह हारा हुआ समझा जाएगा।
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इसे समझने के लिए थोड़ा हिन्दू धर्म और वेद व्यास को समझते हैं क्योंकि तुम्हारा यह प्रश्न महाभारत से आता है।
हिन्दू किसी संप्रदाय विशेष का नाम नहीं हो सकता इसमें अलग-अलग मत, पंथ, विचार आदि का मिश्रण स्पष्ट दिखता है। हाँ यह एक भौगोलिक स्थिति रही होगी जहां हर मत के लोग रहते होंगे और सबको मिलाकर हिंदू की संज्ञा दे दी गई होगी।
यह कब हुआ होगा यह एक अलग विषय है।
परन्तु विषय को आसानी से समझने के लिए, इस भारतीय धर्म को, हिन्दू धर्म से ही संबोधित करते हैं।
हिंदू ग्रंथों को विषय और उद्देश्य के आधार पर अलग-अलग श्रेणियों में बाँटा गया।
कुछ श्रुति कहलाये, कुछ स्मृति, कुछ इतिहास आदि आदि।
और महाभारत को इतिहास की श्रेणी में रखा जाता है।
अब आगे समझते हैं
क्योंकि हिन्दू धर्म बहुत ही पुराना धर्म है और शुरुआत में लिखने की परंपरा नहीं रही होगी। या शायद लिपि का विकास न हुआ हो तब से यह धर्म मानव समाज में व्यक्तिगत और सामाजिक विकास का काम करता रहा हो।
उस समय सारा ज्ञान श्रुति के रूप में यानि गुरु शिष्य परंपरा के साथ अगली पीढ़ी तक दी जाती थी।
कृष्ण द्वैपायन जिन्हें वेद व्यास के नाम से जानते हैं। उन्होंने उपस्थित ज्ञान को वर्गीकृत करके ४ वेदों में लिखित रूप से प्रस्तुत किया।
वेद व्यास ने ही महाभारत लिखा और “श्रीमद भगवद्गीता” महाभारत का ही हिस्सा है।
इसे इसलिए समझा, क्योंकि समझना होगा लेखक कौन हैं और किस तरह रचनाएँ कर सकने के योग्य हैं।
अब जिस ग्रंथ में गीता जैसा ज्ञान हो और रचयिता स्वयं वेद व्यास हो, उसे सिर्फ़ इतिहास नहीं कह सकते।
अगर मेरी मानो तो, महाभारत एक इतिहास तो है लेकिन किसी दर्शन से कम नहीं है।
अब आते हैं युधिष्ठिर पर
पहले ऐतिहासिक दृष्टिकोण से समझते हैं -
जब महाराज पाण्डु अपनी रानी कुंती और माद्री के साथ जंगल में थे, तो उन्हें एक ऋषि से शाप मिला - स्त्री संसर्ग करते ही उनकी मृत्यु हो जायेगी।
उस समय उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं है, तो राजा के रूप में चिंतित होना स्वाभाविक था। ऐसी विषम स्थिति में उन्हें कुंती को मिले वरदान की जानकारी मिली।
दुर्वासा ऋषि के वरदान से कुंती किसी भी देव, गंधर्व आदि का आह्वान करके उनसे पुत्र प्राप्ति कर सकती थी।
अब क्योंकि पाण्डु सत्यनिष्ठ और कर्तव्यपरायण व्यक्ति थे इसलिए उन्होंने ईच्छा रखी कि सबसे पहले धर्म के देवता को बुलाया जाये।
जिन्हें - धर्म या यम कहते हैं।
धर्म से जो पुत्र प्राप्त हुआ उन्हीं का नाम युधिष्ठिर है।
यह कोई साधारण पुत्र नहीं हैं जिनमें बाद में गुण विकसित किए जाने हैं, यह उद्देश्य को निश्चित रखते हुए प्राप्त किए गये हैं, धर्म के पुत्र हैं। है ना?
यहीं से नींव पड़ी, युद्धष्ठिर के धर्मराज नाम जुड़ने का।
एक कहानी आती है,
जहां उनके गुरु द्रोणाचार्य जब “सच बोलने का पाठ” पढ़ाते हैं तो उस दिन से उन्होंने सत्य बोलने का प्रण कर लिया।
हमें भी तो सिखाया जाता है, सच बोलो, अहिंसा करो, दया करो, दान करो … तो हम कितना प्रण ले पाते हैं और उनके भाइयों ने कितना लिया। विषम परिस्थिति में अक्सर लोग सत्य का साथ छोड़ देते हैं परन्तु उन्होंने नहीं छोड़ा।
एक और प्रसंग आता है,
जहां युद्ध के बाद वेश बदल कर शत्रुओं के घायलों की भी मदद करते हैं।
एक और प्रसंग आता है,
युद्ध के दौरान, अश्वत्थामा के मारे जाने की झूठी जानकारी गुरु को दे नहीं पाते हैं।
एक और प्रसंग आता है,
जब सरोवर के पानी से उनके सारे भाई मूर्छित हो जाते हैं, तब यक्ष द्वारा पूछे गये गूढ़ प्रश्नों के उत्तर दिये। जब बदले में एक भाई को जीवित करने की बारी आयी तो माद्री पुत्र नकुल का चयन किया।
जिस तरह के युद्ध के हालात थे ऐसे में, उन्हें शक्तिशाली अर्जुन या भीम को जीवित करना चाहिए था। वैसे भी नकुल सौतला भाई था। लेकिन उन्होंने दोनों माँओं एक एक पुत्र जीवित हों ऐसा सोचा।
वास्तव में, पूरे महाभारत में युधिष्ठिर को एक धर्म के साथ पाओगे इसलिए उन्हें धर्मराज की संज्ञा दी गई।
अब प्रश्न यह है कि,
जब धर्म पारायण हैं फिर उन्होंने जुआ क्यों खेला, भाइयों को दाव पर लगा दिया, राज्य गवाँ दिये, पत्नी तक को जुए में हार गये।
इसको ऐसे समझो,
यह उस समय के समाज को इंगित कर रहा है, हर समय का समाज एक जैसा नहीं रहता है और समाज के हिसाब से ही अलग-अलग धर्म तय किए जाते हैं।
धर्म के कई अर्थ होते हैं, उसमें एक अर्थ नियम भी है।
एक और बात को याद रखते हुए चलना - किसी भी पुस्तक, धर्म, ज्ञान आदि की ज़रूरत व्यक्तिगत और सामाजिक विकास एवं संचालन के लिए होती है।
उस समय एक राजा को जब कोई युद्ध के लिए या द्यूत के लिए, जुआ के लिए कोई ललकार दे वह उसे ना नहीं कर सकता अन्यथा वह हारा हुआ समझा जाएगा।
एक राजा का धर्म है वह लड़ते हुए मर जाये, परंतु अपनी प्रजा को जीते जी किसी के सामने ना झुकायें।
जरा सोच कर देखो, कितने विवेक वाले इंसान हैं युधिष्ठिर, भाईयों से कितना प्रेम है उन्हें, पत्नी से कितना प्रेम है। परन्तु एक जुए में हारने के लिए बैठे हैं।
क्रिकेट का खेल तो है नहीं जो मनोरंजन के लिए खेल रहे हैं, जीत-हार पर एक ट्रॉफ़ी की लेन-देन हो जाएगी और खेल का आनन्द के लिए खेल रहे होते तो किसी और के साथ खेल लेते। लेकिन यहाँ स्थिति अलग है। वह एक राजा हैं सब खोते जा रहे हैं, लेकिन उस समय के समाज के धर्म को निभा रहे हैं।
उस समय के समाज में नियम रहा होगा, आज के दृष्टिकोण से बड़ा ही अन्याय पूर्ण दिखता है। आज के समाज में भी ऐसी हज़ारों चीजें हैं जो उचित नहीं जान पड़ती लेकिन क़ानून है, नियम है, धर्म है।
दूसरा आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें अगर,
पांडव के जितने भी गुण है सब उर्ध्वगामी गुणों के द्योतक हैं और कौरव अधोगामी गुणों के। इस तरह महाभारत एक यह भी संदेश देता है, अगर ५ पांडव के गुणों को अगर धारण करके रखा जाये तो १०० कौरवों पर भी जीत संभव हो जाती है।
उसी गुण में से एक गुण है, जीवन युद्ध में स्थिर रहना - युधिष्ठिर अर्थात् धर्म में स्थिर रहना - धर्मराज।
ॐ
जरा सोच कर देखो, कितने विवेक वाले इंसान हैं युधिष्ठिर, भाईयों से कितना प्रेम है उन्हें, पत्नी से कितना प्रेम है। परन्तु एक जुए में हारने के लिए बैठे हैं।
क्रिकेट का खेल तो है नहीं जो मनोरंजन के लिए खेल रहे हैं, जीत-हार पर एक ट्रॉफ़ी की लेन-देन हो जाएगी और खेल का आनन्द के लिए खेल रहे होते तो किसी और के साथ खेल लेते। लेकिन यहाँ स्थिति अलग है। वह एक राजा हैं सब खोते जा रहे हैं, लेकिन उस समय के समाज के धर्म को निभा रहे हैं।
उस समय के समाज में नियम रहा होगा, आज के दृष्टिकोण से बड़ा ही अन्याय पूर्ण दिखता है। आज के समाज में भी ऐसी हज़ारों चीजें हैं जो उचित नहीं जान पड़ती लेकिन क़ानून है, नियम है, धर्म है।
दूसरा आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें अगर,
पांडव के जितने भी गुण है सब उर्ध्वगामी गुणों के द्योतक हैं और कौरव अधोगामी गुणों के। इस तरह महाभारत एक यह भी संदेश देता है, अगर ५ पांडव के गुणों को अगर धारण करके रखा जाये तो १०० कौरवों पर भी जीत संभव हो जाती है।
उसी गुण में से एक गुण है, जीवन युद्ध में स्थिर रहना - युधिष्ठिर अर्थात् धर्म में स्थिर रहना - धर्मराज।
ॐ
🙏एक साधक के प्रश्न “स्वर्ग और नर्क” के बारे में समझाने के लिए एक वीडियो बनाया था।
https://youtu.be/6klwKd9NjQA
https://youtu.be/6klwKd9NjQA
YouTube
स्वर्ग या नरक - आप किधर जाने वाले हैं?