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अमृत की बूँदे

केवल ही निज लाभ पर,करिए नहीं विचार।
देश-धर्म के कार्य हित , सदा रहें तैयार।।

विरह - वेदना दरिद्रता , वैभवता का रंग।
लाभ-हानि सुख और दुख,जीवन का है अंग।।

सदा भलाई देश की , विकसित रहे समाज।
जन-गण-मन सद्भावना ,आवश्यक है आज।।

आप भला तो जग भला , मधुर रहे व्यवहार।
दूर बुराई से रहो , उत्तम रखो विचार।।

भोगे दुख दासत्व का , परदेशी साम्राज्य।
प्राण गँवाए तब हुए , उदित देश का भाग्य।।

नग्न-पश्चिमी सभ्यता,जकड़ लिया फिर आज।
भारतीयता जा रही , संस्कृत सभ्य सुराज।।

iShQ
2024/11/23 20:56:45
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