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👉 भक्तिगाथा (भाग १३४)
अनन्य भक्ति ही श्रेष्ठतम है
‘‘श्रीराधा की बात मृणालिनी को अच्छी तो बहुत लगी, पर किंचित आश्चर्य भी हुआ। उसे एक ही समय में दो अनुभवों ने घेर लिया। पहला अनुभव इस खुशी का था कि स्वयं श्रीराधा उसे श्रीकृष्ण के प्रेम का रहस्य समझा रही हैं। इससे अधिक सौभाग्य उसका और क्या हो सकता है? क्योंकि यह सच तो ब्रज धरा के नर-नारी, बालक-वृद्ध सभी जानते थे कि श्रीकृष्ण के हृदय का सम्पूर्ण रहस्य वृषभानु की लाडली के अलावा कोई नहीं जानता। यह बात ब्रज के मानवों को ही नहीं, वहाँ के पशु-पक्षियों, वृक्ष-वनस्पतियों को भी मालूम थी कि बरसाने की राधा नन्दगाँव के कृष्ण के रहस्य के सर्वस्व को जानती हैं। और वही राधा इस रहस्य को मृणालिनी को कहें, समझाएँ, बताएँ इससे अधिक सुखकर-सौभाग्यप्रद भला और क्या होगा?
लेकिन मृणालिनी के अनुभव का एक दूसरा हिस्सा भी था। इसी हिस्से ने उन्हें अचरज में डाल रखा था। यह आश्चर्य की गुत्थी ऐसी थी, जिसे वह चाहकर भी नहीं सुलझा पा रही थी। यह आश्चर्य भी श्रीराधा से ही जुड़ा था। उसे लग रहा था कि जब श्रीराधा स्वयं कृष्ण से प्रेम करती हैं, तब वह अपने इस प्रेम का दान उसे क्यों करना चाहती हैं। ऐसे में तो उन्हें स्वयं वञ्चित रहना पड़ेगा। कृष्णप्रेम का अधिकार उसे सौंप कर स्वयं ही राधा रिक्त हस्त-खाली हाथ क्यों होना चाहती हैं। मृणालिनी के लिए यह ऐसी एक अबूझ पहेली थी जिसे वह किसी भी तरह से सुलझा नहीं पा रही थी। बस वह ऊहापोह से भरी और घिरी थी। संकोचवश यह पूछ भी नहीं पा रही थी और बिना पूछे उससे रहा भी नहीं जा रहा था।
हाँ! उसके सौम्य-सलोने मुख पर भावों का उतार-चढ़ाव जरूर था, जिसे श्रीराधा ने पढ़ लिया और वह हँस कर बोलीं- अब कह भी दे मृणालिनी, नहीं कहेगी तो तेरी हालत और भी खराब हो जाएगी। श्रीराधा की इस बात से उसका असमञ्जस तो बढ़ा पर संकोच थोड़ा घटा। वह जैसे-तैसे हिचकिचाते हुए लड़खड़ाते शब्दों में बोली- क्या कान्हा से आप रूठ गयी हैं? उसके इस भोले से सवाल पर श्रीराधा ने कहा- नहीं तो। मृणालिनी बोली- तब ऐसे में उन्हें मुझे क्यों देना चाहती हैं? उसकी यह भोली सी बात सुनकर श्रीराधा जी हँस पड़ीं।’’ श्रीराधा की इस हँसी का अहसास ऋषिश्रेष्ठ पुलह के मुख पर भी आ गया। वे ही इस समय भाव भरे मन से उस गोपकन्या मृणालिनी की कथा सुना रहे थे।
लेकिन यह कथा सुनाते-सुनाते उन्हें लगा कि समय कुछ ज्यादा ही हो चला है। अब जैसे भी हो देवर्षि नारद के अगले भक्तिसूत्र को प्रकट होना चाहिए। यही सोचकर उन्होंने मधुर स्वर में कहा- ‘‘मेरी इस कथा का तो अभी कुछ अंश बाकी है। ऐसे में मेरा अनुरोध है कि देवर्षि अपने सूत्र को बता दें। इसके बाद कथा का शेष अंश भी पूरा हो जाएगा।’’ उनकी यह बात सुनकर नारद अपनी वीणा की मधुर झंकृति के स्वरों में हँस दिए और बोले- ‘‘आप का आदेश सर्वदा शिरोधार्य है महर्षि! बस मेरा यह अनुरोध अवश्य स्वीकारें और अपनी पावनकथा का शेष अंश अवश्य पूरा करें।’’ देवर्षि नारद के इस कथन पर ऋषिश्रेष्ठ पुलह ने हँस कर हामी भरी। उनके इस तरह हामी भरते ही देवर्षि ने कहा-
‘भक्ता एकान्तिनोमुख्याः’॥ ६७॥
( घने अँधेरे में हम घिरे हैं | Ghane Andhere Me Hum Ghiren Hain | Shraddheya Shailbala Pandya, https://youtu.be/6l-AQ8ad-lk )
( शांतिकुंज की गतिविधियों से जुड़ने के लिए Shantikunj Official WhatsApp 8439014110 )
एकान्त (अनन्य) भक्त ही श्रेष्ठ है।
अपने इस सूत्र को पूरा करके देवर्षि ने कहा- ‘‘हे महर्षि! अब मेरा आपसे भावभरा अनुरोध यही है कि इस सूत्र का विवेचन, इसकी व्याख्या आप अपने द्वारा कही जा रही कथा के सन्दर्भ में करें।’’ नारद का यह कथन सुनकर ऋषिश्रेष्ठ पुलह के होठों पर मुस्कान आ गयी। उन्होंने वहाँ पर उपस्थित जनों की ओर देखा। सभी उनकी इस दृष्टि का अभिप्राय समझ गए और सबने विनीत हो निवेदन किया- ‘‘हे महर्षि! आप कथा के शेष भाग को पूरा करते हुए इस सूत्र का सत्य स्पष्ट करें।’’
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य
BY युग निर्माण© (अखिल भारतीय गायत्री परिवार)
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