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👉 *विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग १५)*
*प्रतिकूलताओं से जूझें, सन्तुलन बनाये रखें*
*मध्यवर्ती सन्तुलन स्वाभाविक स्थिति है। तापमान बढ़ जाने से ज्वर माना जाता है। शरीर ठण्डा रहे तो वह भी शीत प्रकोप माना और चिन्ताजनक समझा जाता है।* रक्तचाप बढ़ने की ही तरह उसका घटना भी रुग्णता का चिन्ह है। किसी अनुकूलता से लाभान्वित होने पर हर्षातिरेक में उछलने लगना भी असंगत है और असफलता की प्रतिकूलता का सामना करने पर विषाद में डूब जाना और *सिर धुनना भी अविकसित अनगढ़ व्यक्तित्व का चिन्ह है। इस असंतुलनों से बचा ही जाना चाहिए।*
*सभी व्यक्ति इच्छानुकूल आचरण करेंगे—यह आशा रखना व्यर्थ है। सभी अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व रखते हैं।* जन्म-जन्मान्तरों के संचित भले-बुरे संस्कार साथ लेकर आते हैं। पलने और विकसित होने की परिस्थितियों में भिन्नता रहती है। किसी पेड़ के पत्तों का गठन आपस में मिलता-जुलता है, उप उनमें भिन्नता अवश्य रहती है। *हर आदमी के अंगूठे के निशानों में अन्तर होता है। एक आकृति-प्रकृति के दो मनुष्य कहीं नहीं देखे गये।* भिन्नता ही इस संसार की विशेषता है। उसके आधार पर बहुत तरह से सोचने और स्थिति के अनुरूप बदलने, व्यवहार करने की कुशलता आती है। *मनुष्य बहुज्ञ, बहुश्रुत, बहुकौशल सम्पन्न इसी आधार पर बनता है। उतार-चढ़ावों का सामना करते रहने से ही व्यावहारिकता में निखार आता है।*
*हल्के बर्तन चूल्हे पर चढ़ते ही आग-बबूला हो जाते हैं और उसमें डाले गये पदार्थ उफनने लगते हैं, पर भारी-भरकम बर्तनों में जो पकता है उसकी गति तो धीमी होती है, पर परिपाक उन्हीं में ठीक से बन पड़ता है।* हमें बबूले की तरह फूलना, फुदकना और इतराना नहीं चाहिए रीति-नीति स्थिर नहीं रहती, वह कुछ क्षण में टूट-फूट जाती है। प्रवाह झरने जैसा होना चाहिए जो नियत क्रम से नियत दिशा में प्रवाहमान रहे। *तभी वह अपने स्वरूप को सही बनाये रह सकता है, सही रीति-नीति से सही काम कर सकता है।
चंचलता व्यग्रता की मनःस्थिति में सही निर्धारण और सही प्रयास करते-धरते नहीं बन पड़ता।* असंतुष्ट और उद्विग्न व्यक्ति जो सोचता है एक पक्षीय होता है और जो करता है, उसमें हड़बड़ी का समावेश रहता है। *ऐसी मनःस्थिति में किये गये निर्धारण या प्रयास प्रायः असफल ही होते हैं, उन्हें यशस्वी बनने का अवसर नहीं मिलता।*
*आवेश या अवसाद दोनों ही व्यक्ति को लड़खड़ाती स्थिति में धकेल देते हैं। ऐसी दशा में निर्धारित कार्यों को पूरा कर सकना, साथियों के साथ उपयुक्त तालमेल बिठाये रह सकना कठिन जान पड़ता है।* प्रतिकूलतायें बाह्य परिस्थितियों के कारण जितनी आती हैं उससे कहीं अधिक निज का असन्तुलन काम को बिगाड़ता है। *व्यक्ति को उपहासास्पद, अस्थिर, अप्रामाणिक बनाता है।*
*( जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि | Jaisi Drusti Vaisi Srushti | Motivational Story | Rishi Chintan, https://youtu.be/eESOxu9H1Ps )
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*सबसे बड़ी बात यह है कि उत्तेजना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती है।* आक्रोश में भरे हुए उद्विग्न व्यक्ति न चैन से रहते है, न दूसरों को रहने देते हैं। रक्त उबलता रहता है, विचार क्षेत्र में तूफान उठता रहता है। फलतः जो व्यवस्थित था वह भी यथास्थान नहीं रह पाता। *पाचन तन्त्र बिगड़ता है, रक्त प्रवाह में व्यतिरेक उत्पन्न होता है, असंतुलित मस्तिष्क अनिद्रा, अर्द्धविक्षिप्तता जैसे रोगों से घिरकर स्वास्थ्य सन्तुलन को गड़बड़ाता है।* हमें हंसती-हंसाती स्थिति में ही रहना चाहिए एवं हर परिस्थिति के लिए स्वयं को तैयार रखना चाहिए।
.... *क्रमशः जारी*
✍🏻 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
📖 *विचारों की सृजनात्मक शक्ति पृष्ठ १८
BY युग निर्माण© (अखिल भारतीय गायत्री परिवार)
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