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गुरुजी, मेरे खयाल से आत्मा कुछ है ही नहीं जो जन्मती है या मरती है । केवल कामनाओं का जन्म मरण होता है । कामनाएं जो की अति सूक्ष्म conciousness होती है , वही किसी माध्यम से सूक्ष्म शरीर नमक यंत्र से अटैच होती है और उस पर सवार होकर जन्मों की यात्राएं करती है । इन सभी को ऊर्जा देने वाली सत्ता ईश्वर है , जो की कामनाओं, सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर सभी को ऊर्जा प्रदान कर रही है ।

आज अगर 100 कामनाएं है तो वो हो सकता है 5 अलग अलग शरीर धारण कर ले । उन 5 शरीरों द्वारा उन 100 कामनाओं की पूर्ति के उद्देश्य से एक साथ 5 जन्म होंगे।

ऐसा मेरा सोचना है

--
एक ही बात को कहने के अलग अलग तरीके हैं। इसलिए तो भारत में अलग अलग दर्शन हुए... कुछ ने आत्मा को स्थान दिया, कुछ ने नहीं दिया।

तुम्हारी बातें भी कुछ स्तर पर ठीक हैं -

लेकिन हमें यहां समझना होगा, क्या हम ऐसा सोच लेने से या सुन लेने से या मान लेने से किसी लाभ को प्राप्त करते हैं तो उत्तर होगा नहीं।

दिक़्क़त यह होती है उसे शब्दों में कहने की कोशिश की जाती है जो शब्दों में पूरी तरह कभी समझा ही नहीं जा सकेगा। लेकिन हर सदी में एक गुरु अपनी तरफ़ से प्रयास करता ही रहा है उसे कुछ आसान शब्दों में कह दिया जाये; गुरु जानता है कोई कभी शब्दों में समझ नहीं पायेगा लेकिन हाँ यात्रा कि शुरुआत के लिए ये शब्द बड़े ज़रूरी होते हैं। इसलिए जब प्रश्नकर्ता बदल जाते हैं तो गुरुओं के उत्तर बदल जाते हैं।

कहते हैं, एक बार बुद्ध किसी गाँव में विहार कर रहे थे तो उनसे किसी ने पूछा -
भगवान मेरा मानना है ईश्वर नहीं होते हैं यह बस लोगों में स्थिरता और शान्ति बनाये रखने के लिए मान लिये गये हैं। आपका इस बारे में क्या कहना है।
बुद्ध ने तत्काल उत्तर दिया - तुम सही सोचते हो।

उसी शाम किसी दूसरे व्यक्ति ने पूछा - भगवान, मेरी बड़ी आस्था है ईश्वर में मुझे उनकी पूजा अर्चना करके गहरी शान्ति मिलती है। आपका इस बारे में क्या मत है? क्या ईश्वर हैं, क्या उनकी पूजा करना ठीक है?
बुद्ध ने तत्काल उत्तर दिया - तुम सही हो, ईश्वर की पूजा करनी ही चाहिए।

यहाँ बुद्ध उसे ना बेवकूफ बना रहे होंगे ना ही असमंजस की स्थिति बना रहे होंगे, वह तो उन दोनों के विश्वास को बल दे रहे हैं। जिससे दोनों अपनी राह पर तत्परता से चले और एक ऐसी स्थिति पर पहुँच जाये जहां ईश्वर है या नहीं इसका द्वंद्व ख़त्म हो जाये।

जब उस स्थिति को अनुभव कर पाओगे या उस स्थिति को जीने लगोगे। तब फिर उसी बात को अलग अलग ढंग से कह सकोगे। उससे पहले सब उधार की बातें हैं।



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गुरुजी, मेरे खयाल से आत्मा कुछ है ही नहीं जो जन्मती है या मरती है । केवल कामनाओं का जन्म मरण होता है । कामनाएं जो की अति सूक्ष्म conciousness होती है , वही किसी माध्यम से सूक्ष्म शरीर नमक यंत्र से अटैच होती है और उस पर सवार होकर जन्मों की यात्राएं करती है । इन सभी को ऊर्जा देने वाली सत्ता ईश्वर है , जो की कामनाओं, सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर सभी को ऊर्जा प्रदान कर रही है ।

आज अगर 100 कामनाएं है तो वो हो सकता है 5 अलग अलग शरीर धारण कर ले । उन 5 शरीरों द्वारा उन 100 कामनाओं की पूर्ति के उद्देश्य से एक साथ 5 जन्म होंगे।

ऐसा मेरा सोचना है

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एक ही बात को कहने के अलग अलग तरीके हैं। इसलिए तो भारत में अलग अलग दर्शन हुए... कुछ ने आत्मा को स्थान दिया, कुछ ने नहीं दिया।

तुम्हारी बातें भी कुछ स्तर पर ठीक हैं -

लेकिन हमें यहां समझना होगा, क्या हम ऐसा सोच लेने से या सुन लेने से या मान लेने से किसी लाभ को प्राप्त करते हैं तो उत्तर होगा नहीं।

दिक़्क़त यह होती है उसे शब्दों में कहने की कोशिश की जाती है जो शब्दों में पूरी तरह कभी समझा ही नहीं जा सकेगा। लेकिन हर सदी में एक गुरु अपनी तरफ़ से प्रयास करता ही रहा है उसे कुछ आसान शब्दों में कह दिया जाये; गुरु जानता है कोई कभी शब्दों में समझ नहीं पायेगा लेकिन हाँ यात्रा कि शुरुआत के लिए ये शब्द बड़े ज़रूरी होते हैं। इसलिए जब प्रश्नकर्ता बदल जाते हैं तो गुरुओं के उत्तर बदल जाते हैं।

कहते हैं, एक बार बुद्ध किसी गाँव में विहार कर रहे थे तो उनसे किसी ने पूछा -
भगवान मेरा मानना है ईश्वर नहीं होते हैं यह बस लोगों में स्थिरता और शान्ति बनाये रखने के लिए मान लिये गये हैं। आपका इस बारे में क्या कहना है।
बुद्ध ने तत्काल उत्तर दिया - तुम सही सोचते हो।

उसी शाम किसी दूसरे व्यक्ति ने पूछा - भगवान, मेरी बड़ी आस्था है ईश्वर में मुझे उनकी पूजा अर्चना करके गहरी शान्ति मिलती है। आपका इस बारे में क्या मत है? क्या ईश्वर हैं, क्या उनकी पूजा करना ठीक है?
बुद्ध ने तत्काल उत्तर दिया - तुम सही हो, ईश्वर की पूजा करनी ही चाहिए।

यहाँ बुद्ध उसे ना बेवकूफ बना रहे होंगे ना ही असमंजस की स्थिति बना रहे होंगे, वह तो उन दोनों के विश्वास को बल दे रहे हैं। जिससे दोनों अपनी राह पर तत्परता से चले और एक ऐसी स्थिति पर पहुँच जाये जहां ईश्वर है या नहीं इसका द्वंद्व ख़त्म हो जाये।

जब उस स्थिति को अनुभव कर पाओगे या उस स्थिति को जीने लगोगे। तब फिर उसी बात को अलग अलग ढंग से कह सकोगे। उससे पहले सब उधार की बातें हैं।

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