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रहीम एक नवाब थे , वे प्रतिदिन दान किया करते थे।
उनका दान देने का ढंग अनोखा था। वे रूपये पैसों की
ढेरी लगवा लेते थे और आँखें नीची करके उस ढेर में से
मुट्ठी भर-भर कर याचकों को देते जाते थे।
एक दिन संत तुलसीदासजी भी वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने
देखा कि एक याचक दो-तीन बार ले चुका है परंतु रहीम
फिर भी उसे दे रहे हैं.!
यह दृश्य देखकर तुलसीदास जी ने पूछा :--
सीखे कहाँ नवाबजू , देनी ऐसी देन.?
ज्यों ज्यों कर ऊँचे चढ़े , त्यों त्यों नीचे नैन.!!
तब रहीम ने बड़ी नम्रता से उत्तर दिया :--
देने हारा और है , जो देता दिन रैन.!
लोग भरम हम पै करें , या विधि नीचे नैन.!!
असल में दाता तो कोई दूसरा है जो दिन-रात दे रहा है ,
हम पर व्यर्थ ही भ्रम होता है कि हम दाता हैं इसीलिए
आँखें झुक जाती हैं।
कितनी ऊँची दृष्टि है। कितना पवित्र दान है। दान श्रद्धा ,
प्रेम , सहानुभूति एवं नम्रतापूर्वक दो। कुढ़कर , जलकर ,
खीजकर मअंतरात्मा का आशीष पाओ।
Jᴏɪɴ 🔜 @Indian_Motivation
BY इंडियन मोटिवेशन
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